कालभैरव जयंती: जानें कैसे बने काशी के रक्षक
कैसे बने काशी नगरी के कोतवाल
Kaal Bhairav Jayanti Special: आज, बुधवार को भगवान कालभैरव की जयंती श्रद्धा और भक्ति के साथ मनाई जा रही है। मार्गशीर्ष मास के कृष्ण पक्ष की अष्टमी तिथि पर भगवान शिव के क्रोध से प्रकट हुए कालभैरव ने सृष्टि में संतुलन और न्याय की स्थापना की। यह दिन केवल एक धार्मिक पर्व नहीं है, बल्कि यह हमें यह भी याद दिलाता है कि जीवन में भय, अहंकार और अन्याय पर संयम, सत्य और श्रद्धा की विजय ही सच्ची साधना है। इस दिन कालभैरव की पूजा से साहस और आत्मबल की प्राप्ति होती है।
कालभैरव अवतरण की कथा
प्राचीन ग्रंथों में वर्णित है कि देवताओं के बीच त्रिदेव ब्रह्मा, विष्णु और महेश में श्रेष्ठता का प्रश्न उठा। इस पर ब्रह्मा जी ने स्वयं को सर्वोच्च बताकर भगवान शिव का अपमान किया। भगवान शिव इस अपमान से क्रोधित हुए और उनके तीसरे नेत्र से एक प्रचंड ज्योति प्रकट हुई, जिससे भगवान कालभैरव का अवतार हुआ।
कालभैरव का जन्म ब्रह्मा जी के अहंकार को समाप्त करने और सृष्टि में संतुलन स्थापित करने के लिए हुआ। जब ब्रह्मा जी ने अपने क्रोध में सीमा लांघी, तब कालभैरव ने अपने त्रिशूल से उनके पांच में से एक सिर को अलग कर दिया। यह घटना केवल दंड नहीं थी, बल्कि यह अहंकार पर विनम्रता की विजय का प्रतीक बनी। तभी से मार्गशीर्ष मास के कृष्ण पक्ष की अष्टमी तिथि को कालभैरव जयंती मनाई जाने लगी।
काशी के रक्षक भगवान कालभैरव
शिवपुराण में उल्लेख है कि जब भगवान शिव ने काशी को मोक्षभूमि घोषित किया, तब उसकी रक्षा का कार्य कालभैरव को सौंपा गया। तब से वे काशी के कोतवाल और रक्षक देवता माने जाते हैं। यह मान्यता है कि जब तक कोई भक्त कालभैरव के दर्शन नहीं करता, तब तक उसकी काशी यात्रा अधूरी मानी जाती है। श्रद्धालु पहले कालभैरव मंदिर में पूजा करते हैं, फिर काशी विश्वनाथ और अन्नपूर्णा माता के दर्शन करते हैं।
यह परंपरा केवल आस्था नहीं, बल्कि एक गहरा संदेश भी देती है कि मोक्ष की नगरी में प्रवेश से पहले व्यक्ति को अपने भीतर के भय, अहंकार और नकारात्मकता का त्याग करना आवश्यक है। भगवान कालभैरव यही सिखाते हैं कि सच्चा भक्त वही है जो संयम, श्रद्धा और विनम्रता के साथ धर्म के मार्ग पर चलता है।
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