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सामा चकेवा पर्व: मिथिला की संस्कृति का अनूठा उत्सव

सामा चकेवा पर्व मिथिला क्षेत्र में भाई-बहन के रिश्ते का प्रतीक है। यह पर्व कार्तिक शुक्ल पक्ष की षष्ठी से लेकर पूर्णिमा तक मनाया जाता है, जिसमें बहनें मिट्टी की मूर्तियां बनाकर उनकी पूजा करती हैं। इस पर्व की पौराणिक कथा और परंपराएं इसे विशेष बनाती हैं। जानें इस पर्व के पीछे की कहानी और इसकी सांस्कृतिक महत्वता के बारे में।
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सामा चकेवा पर्व: मिथिला की संस्कृति का अनूठा उत्सव

सामा चकेवा पर्व का महत्व


मिथिला क्षेत्र में मनाया जाने वाला सामा चकेवा पर्व भाई-बहन के रिश्ते का प्रतीक है। यह पर्व कार्तिक शुक्ल पक्ष की षष्ठी तिथि से शुरू होकर पूर्णिमा तक चलता है। इस दौरान बहनें मिट्टी की मूर्तियां बनाकर उनकी पूजा करती हैं, जिनका विसर्जन कार्तिक पूर्णिमा के दिन किया जाता है। इन मूर्तियों में सामा चकेवा, चुगला, सतभैया, वृंदावन और कुछ विशेष पक्षी शामिल होते हैं।


पौराणिक कथा


कथा के अनुसार, भगवान श्री कृष्ण की पुत्री सामा को एक चुगले ने शिकायत कर दी थी, जिसके कारण कृष्ण ने उसे पक्षी बनने का श्राप दिया। लंबे समय तक सामा पक्षी बनी रही, लेकिन उसके भाई चकेवा ने प्रेम और त्याग से उसे मनुष्य का रूप दिलवाया।


चुगले की प्रतिमा को पीटने की परंपरा


इस पर्व के दौरान भाई-बहन के रिश्ते को मनाने के लिए चुगले की प्रतिमा बनाकर उसे पीटने की परंपरा है। बहनें भाई को चूड़ा और दही खिलाकर उसकी खुशहाली की कामना करती हैं।


पद्म पुराण में उल्लेख


सामा-चकेवा पर्व का उल्लेख पद्म पुराण में भी मिलता है। एक चुगलबाज ने श्री कृष्ण से साम्बवती के प्रेमालाप की शिकायत की, जिसके बाद कृष्ण ने उन्हें शाप दिया। साम्ब ने तपस्या कर उन्हें मुक्त कराया, जिसके बाद से यह पर्व मनाया जाने लगा।


खुशहाल जीवन की मंगल कामना


सात दिनों तक चलने वाले इस पर्व में बहनें अपने भाइयों के सुखद जीवन के लिए मंगल कामना करती हैं। वे पारंपरिक गीत गाकर सामा-चकेवा की कथा को प्रस्तुत करती हैं। अंत में, कार्तिक पूर्णिमा को बहनें मूर्तियों को सजाकर नदी या तालाब में विसर्जित करती हैं।