भगवान जगन्नाथ की स्नान पूर्णिमा: एक अद्भुत धार्मिक परंपरा

भगवान जगन्नाथ का अनोखा स्नान समारोह
भारत की धार्मिक परंपराएं अद्वितीय और रहस्यमयी होती हैं। ओडिशा के पुरी में स्थित भगवान जगन्नाथ का मंदिर भी ऐसी ही अनोखी परंपराओं के लिए प्रसिद्ध है। यहां स्नान पूर्णिमा के अवसर पर एक विशेष आयोजन होता है, जो देखने में बेहद चकित करने वाला होता है। इस दिन भगवान जगन्नाथ, उनके भाई बलभद्र और बहन सुभद्रा का राजकीय स्नान किया जाता है, जिसके बाद भगवान बीमार पड़ जाते हैं।
जी हां, भगवान स्वयं बीमार हो जाते हैं और इसके चलते भक्तों को 15 दिनों तक दर्शन नहीं मिलते। इसे ‘अनासर काल’ कहा जाता है। आइए, इस परंपरा के गहरे धार्मिक, आध्यात्मिक और सांस्कृतिक महत्व को समझते हैं।
स्नान पूर्णिमा का महत्व
हिंदू पंचांग के अनुसार, ज्येष्ठ मास की पूर्णिमा को भगवान जगन्नाथ जी की विशेष स्नान यात्रा का आयोजन किया जाता है, जिसे ‘स्नान पूर्णिमा’ कहा जाता है। इस दिन भगवान को 108 कलशों से स्नान कराया जाता है, जो विशेष विधि से किया जाता है। इसमें गंगाजल, चंदन, द्रव्य, पुष्प और औषधियों का उपयोग किया जाता है। यह माना जाता है कि इस दिन भगवान जगन्नाथ का जन्म हुआ था, इसलिए इसे ‘जन्म स्नान’ के रूप में भी मनाया जाता है।
भगवान जगन्नाथ का बीमार होना
भारी स्नान और जलविहार के बाद भगवान को ‘स्नान ज्वर’ हो जाता है। शास्त्रों और लोक परंपरा में इसे प्रतीकात्मक रूप से दर्शाया गया है कि भगवान भी हमारे जैसे शरीरधारी हैं और मौसमी बदलावों से प्रभावित होते हैं। स्नान के बाद भगवान जगन्नाथ जी को ठंड लग जाती है और वे अस्वस्थ हो जाते हैं। इसके बाद उन्हें ‘अनासर गृह’ में ले जाया जाता है, जहां उनकी सेवा एक वैद्य द्वारा की जाती है और उन्हें विशेष जड़ी-बूटियों का सेवन कराया जाता है।
15 दिनों तक दर्शन नहीं होते
भगवान के बीमार होने के कारण भक्तों को 15 दिनों तक दर्शन नहीं होते। इस अवधि को ‘अनासर काल’ कहा जाता है। इस दौरान भगवान को चंदन, तुलसी, औषधियों और आरामदायक भोज्य पदार्थ अर्पित किए जाते हैं। भगवान का श्रृंगार और पूजा का क्रम अंदर ही चलता है, लेकिन गर्भगृह बंद रहता है। भक्तगण मंदिर के बाहर से भगवान की जलझुलनी सेवा और उनका स्मरण करते हैं। यह समय भक्तों की आस्था की परीक्षा का समय होता है।
रथ यात्रा का पावन पर्व
इन 15 दिनों की ‘अनासर अवधि’ के बाद जब भगवान स्वस्थ होते हैं, तो पुरी में भव्य रथ यात्रा का आयोजन होता है। इस यात्रा में भगवान जगन्नाथ अपने भाई बलभद्र और बहन सुभद्रा के साथ तीन अलग-अलग रथों पर सवार होकर अपने मौसी के घर (गुंडिचा मंदिर) की ओर प्रस्थान करते हैं। यह यात्रा आषाढ़ शुक्ल द्वितीया को होती है, और इसे देखने के लिए देश-विदेश से लाखों श्रद्धालु पुरी पहुंचते हैं।
धार्मिक और आध्यात्मिक संदेश
भगवान का बीमार होना और फिर स्वस्थ होकर यात्रा पर निकलना — यह पूरी परंपरा भक्तों को यह सिखाती है कि ईश्वर हमारे जीवन के हर भाव से जुड़े हुए हैं। वे केवल पूजनीय नहीं, बल्कि हमारे जैसे अनुभूति करने वाले, हमारे दुख-दर्द समझने वाले सजीव और स्नेही रूप में हमारे सामने हैं। इसके अलावा, यह परंपरा हमें सिखाती है कि धैर्य और प्रतीक्षा भी भक्ति का एक महत्वपूर्ण रूप है। जब भगवान 15 दिन तक नहीं मिलते, तब भक्तों की श्रद्धा और भी प्रगाढ़ होती है।