1962 का चीन-भारत युद्ध : सीमा विवाद नहीं बल्कि तिब्बत को लेकर हुआ था टकराव
कोलकाता, 02 नवंबर (हि.स.)। नवंबर महीने की शुरुआत हो चुकी है। ऐसे में एक बार फिर भारत और चीन के बीच हुई जंग सुर्खियों में है। 1962 की ऐतिहासिक लड़ाई के छह दशक बाद भी हिमालयी सीमा पर भारत और चीन आमने-सामने खड़े हैं। अभी तक तो ऐसा माना जाता रहा है कि सीमा विवाद को लेकर दोनों देशों के बीच युद्ध हुए थे, लेकिन गहन शोधकर्ता इससे विपरीत दावा करते हैं। इस युद्ध में ऐसा प्रचार किया जाता है कि भारत की करारी शिकायत हुई थी लेकिन यह पूरी तरह सच नहीं है। बल्कि भारत ने चीन के खिलाफ जबरदस्त मजबूती हासिल की थी। हालांकि उस दौर में मीडिया के व्यापक प्रचार के अभाव और अमेरिका की कुटिल चाल की वजह से भारत को परास्त और कमजोर प्रचारित किया गया था।
विशेषज्ञ मानते हैं कि 1962 का भारत-चीन युद्ध केवल सीमा विवाद नहीं था, बल्कि इसकी जड़ तिब्बत से जुड़ी चीन की विस्तार नीति में छिपी है। शोधकर्ता डॉ. कुमार के अनुसार, बीजिंग की सबसे बड़ी चिंता नक्शों या पहाड़ी दर्रों की नहीं, बल्कि तिब्बत पर अपनी सम्प्रभुता को चुनौती मिलने की थी, जिसे वह भारत से प्रेरित मानता रहा।
1956 में तिब्बत में असंतोष की शुरुआत हुई। मार्च 1959 में ल्हासा में बड़ा विद्रोह भड़का, जिसे दबाने के लिए चीन की पीपुल्स लिबरेशन आर्मी यानी पीएलए को कड़ी कार्रवाई करनी पड़ी। इसी दौरान 14वें दलाई लामा चीन से बचकर 31 मार्च, 1959 को भारत आ गए। भारत ने उन्हें मानवीय आधार पर शरण दी, जिसे बीजिंग ने गंभीर उकसावे के रूप में लिया।चीन के अनुसार, यह विद्रोह केवल स्थानीय असंतोष नहीं था, बल्कि बाहरी शक्तियों की साजिश था और इसमें भारत को सहयोगी माना गया।
डॉ. कुमार का कहना है कि शीत युद्ध के दौरान अमेरिका की खुफिया एजेंसी सीआईए ने तिब्बती खाम्पा लड़ाकों को हथियार, प्रशिक्षण और रेडियो उपकरण उपलब्ध कराए। 1957 से 1961 के बीच लगभग 250 टन हथियार व सामग्री तिब्बत में विद्रोहियों तक पहुंचाई गईं। इन अभियानों का संचालन मुख्यतः तब के पूर्वी पाकिस्तान और दक्षिण-पूर्व एशिया से होता था।
हालांकि, भारत प्रत्यक्ष रूप से शामिल नहीं था, किंतु चीन को पूरा विश्वास था कि इतनी बड़ी कार्रवाई भारत की जानकारी के बिना सम्भव नहीं। तब के चीन के बड़े डिसीजन मेकर डेंग शियाओपिंग ने नेहरू पर “विद्रोह के लिए जिम्मेदार” होने का आरोप लगाया और चेताया कि चीन “समय आने पर हिसाब करेगा।”
उस समय चीन के शीर्ष नेता माओ त्से तुंग के लिए तिब्बत पर नियंत्रण चीन की सुरक्षा और पश्चिमी घेराबंदी के खतरे से मुकाबले का अहम हिस्सा था। इसलिए दलाई लामा को शरण देना बीजिंग के लिए भारत की सीधी चुनौती बन गया।
माओ ने अप्रैल, 1959 में पार्टी पोलित ब्यूरो की बैठक में भारत की नीतियों को “चीन विरोधी गतिविधियां” बताया और लिखित प्रचार के माध्यम से नेहरू सरकार पर सीधा हमला तेज कर दिया। इसके बाद से चीन की नजर में सीमा विवाद तिब्बत के संकट का विस्तार बन गया।
1959 के मध्य से सीमा पर तनाव जमीन पर दिखाई देने लगा। 25 अगस्त को नेफा (अब अरुणाचल प्रदेश) स्थित लोंगजू में चीनी और भारतीय सैनिकों के बीच पहली बड़ी झड़प हुई। उससे कुछ पहले खिंजेमाने में भी मुठभेड़ हुई थी।
नई दिल्ली ने इस स्थिति पर सोवियत संघ से हस्तक्षेप की अपील की, पर मॉस्को ने तटस्थ रुख अपनाया, जिसे चीन ने साम्यवादी एकजुटता से गद्दारी माना। वह चाहता था कि रूस खुलकर भारत के खिलाफ चीन का साथ दे। अक्टूबर, 1959 में माओ और सोवियत नेता निकिता ख्रुश्चेव के बीच इसी मुद्दे पर तीखी बहस खुलकर सामने आई, जिससे चीन-सोवियत मतभेद और गहरा गया।
1961 में भारत ने फ़ॉरवर्ड पॉलिसी लागू कर सीमा पर अपने दावे को दोहराने के लिए छोटे-छोटे सैन्य ठिकाने बढ़ाए। भारत का उद्देश्य केवल अपनी उपस्थिति दर्ज कराना था, लेकिन चीन ने इसे तिब्बत विरोधी अभियान की अगली कड़ी माना।
माओ पहले ही कह चुके थे कि “हम तब तक आक्रमण नहीं करेंगे जब तक कोई उचित बहाना न मिले।” 1962 में चीन को वही बहाना मिल गया।
20 अक्टूबर, 1962 को चीन ने लद्दाख से लेकर नेफा तक पूरे मोर्चे पर हमला किया। एक महीने बाद 20 नवंबर को बीजिंग ने एकतरफा युद्धविराम की घोषणा कर दी। भारत सामरिक रूप से कमजोर स्थिति में आ गया और अविश्वास की एक लकीर हमेशा के लिए खिंच गई।
इतिहासकारों का मानना है कि यह युद्ध एक असुरक्षा-जनित प्रतिक्रिया था। तिब्बत में हुए विद्रोह, पीएलए की भारी क्षति, विदेशी हस्तक्षेप के भय और दलाई लामा को शरण देने से उपजा हुआ।
युद्ध के बाद जब इस मामले में गहन पड़ताल हुई तो पता चला कि चीन की आर्मी को भारी नुकसान हुआ था। भले ही भारत की हार हुई थी, लेकिन भारतीय सैनिकों ने ड्रैगन को ऐसी चुनौती दी थी जिसकी उम्मीद पूरी दुनिया को नहीं थी। हालांकि, उस दौर में इस स्थिति के प्रचार प्रचार के लिए भारत के पास उतने सशक्त माध्यम नहीं थे और अमेरिका ने भारत के बढ़ते कदम से घबराकर इस युद्ध में भारत की हार का एक तरफ सच पूरी दुनिया में फैलाया।
विशेषज्ञों का मानना है कि सीमा विवाद केवल दिखने वाला हिस्सा है। असली संघर्ष तिब्बत को लेकर है, जिसे चीन अपने साम्राज्यीय आत्मसम्मान से जोड़ता है। चीन मानता है कि भारत अब भी उसके अंदरूनी मामलों को प्रभावित करने की क्षमता रखता है।
डॉ. कुमार के शब्दों में “1962 का युद्ध तिब्बत से पैदा हुआ था, और जब तक तिब्बत पर चीन की असुरक्षा समाप्त नहीं होती, सीमा पर शांति स्थायी नहीं हो सकती।”
हिमालय की ऊंचाइयों में आज भी वही इतिहास पल रहा है। भू-सीमाएं बदली हों या न बदली हों, चीन की असुरक्षा वहीं अटकी है जहां से युद्ध की कहानी शुरू हुई थी।------------------------
हिन्दुस्थान समाचार / ओम पराशर
