उपलब्धि: बीएचयू के शोधकर्ताओं ने खोजी वंशानुगत पौध प्रतिरक्षा
– सतत् हरित ग्रह की दिशा में एक महत्वपूर्ण उपलब्धि,जलवायु-सहिष्णु फसलों की सुरक्षा के लिए नई राह खुली
वाराणसी, 12 नवम्बर (हि.स.)। उत्तर प्रदेश के वाराणसी स्थित काशी हिन्दू विश्वविद्यालय (बीएचयू) के वनस्पति विज्ञान विभाग के वैज्ञानिकों ने कृषि विज्ञान के क्षेत्र में एक क्रांतिकारी खोज की है। विभाग के डॉ. प्रशांत सिंह एवं उनकी शोध टीम — बंदना, निधि और थिरुनारायण — ने वंशानुगत पौध प्रतिरक्षा ( हेरिटेबल प्लांट इम्यूनिटी) की पहचान कर सतत् कृषि की दिशा में एक नई उम्मीद जगाई है।
शोध के अनुसार, मिट्टी में पाए जाने वाले लाभकारी सूक्ष्मजीव (माइक्रोब्स) गेहूँ के पौधों में ऐसी प्रतिरक्षा उत्पन्न कर सकते हैं जो न केवल वर्तमान पीढ़ी को रोगों से बचाती है, बल्कि यह सुरक्षा अगली पीढ़ियों तक भी बनी रहती है। यह खोज रासायनिक-मुक्त, जलवायु-सहिष्णु फसलों के विकास की दिशा में एक महत्वपूर्ण कदम मानी जा रही है।
यह अध्ययन एएनआरएफ कोर रिसर्च ग्रांट (सीआरजी) के सहयोग से सम्पन्न हुआ है और इसे प्रतिष्ठित अंतरराष्ट्रीय शोध पत्रिका प्लांट साइंस (आयरलैंड) में प्रकाशित किया गया है। डॉ. प्रशांत सिंह ने बताया कि उनकी टीम ने पाया कि लाभकारी जीवाणु से “प्राइम” किए गए गेहूँ के पौधों में स्पॉट ब्लॉच रोग के प्रति प्रतिरोधक क्षमता में उल्लेखनीय वृद्धि हुई। आश्चर्यजनक रूप से, यह प्रतिरोध शक्ति पौधों की अगली पीढ़ी में भी स्थानांतरित हो गई
— जिससे अंतरपीढ़ी प्रतिरक्षा सक्रियण की पुष्टि हुई।
शोध में यह भी सामने आया कि प्राइम किए गए पौधों की दूसरी पीढ़ी (G₂) में रोग की तीव्रता कम पाई गई, उनकी रक्षा प्रतिक्रियाएँ तीव्र थीं और वे रोगजनक तनाव की स्थिति में भी बेहतर वृद्धि एवं उत्पादन क्षमता प्रदर्शित कर रहे थे।
महत्वपूर्ण रूप से, टीम ने इस वंशानुगत प्रतिरक्षा के एपिजेनेटिक तंत्रों को भी उजागर किया। आणविक विश्लेषण से यह स्पष्ट हुआ कि प्रमुख रक्षा जीन PR1 और PR3 के प्रमोटर क्षेत्रों में डीएनए मिथाइलेशन में परिवर्तन हुआ, जो पौधों की “प्रतिरक्षा स्मृति” को नियंत्रित करता है। यही एपिजेनेटिक चिह्न आगे की पीढ़ियों में स्थानांतरित होकर पौधों को संक्रमण के प्रति शीघ्र प्रतिक्रिया देने में सक्षम बनाते हैं।
डॉ. प्रशांत सिंह के अनुसार,यह खोज सतत् कृषि की दिशा में नई सोच प्रस्तुत करती है। यदि लाभकारी सूक्ष्मजीवों की मदद से वंशानुगत प्रतिरक्षा को स्थायी रूप से स्थापित किया जा सके, तो रासायनिक कृषि पर निर्भरता घटाकर पर्यावरण-अनुकूल और सशक्त कृषि प्रणाली विकसित की जा सकती है। बीएचयू की यह उपलब्धि न केवल भारतीय कृषि अनुसंधान के लिए गर्व का विषय है, बल्कि पौधा–सूक्ष्मजीव अंतःक्रिया के क्षेत्र में विश्वविद्यालय की वैश्विक स्थिति को भी और सुदृढ़ करती है।
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हिन्दुस्थान समाचार / श्रीधर त्रिपाठी
