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भारत के आर्थिक आंकड़ों पर आईएमएफ का संदेह: क्या है असली सच?

आईएमएफ ने भारत के आर्थिक आंकड़ों को सी ग्रेड में रखा है, जिससे देश की आर्थिक स्थिति पर सवाल उठ रहे हैं। मीडिया की भूमिका और आंकड़ों की विश्वसनीयता पर चर्चा करते हुए, यह लेख बताता है कि कैसे राजनीतिक आवश्यकताओं के चलते आंकड़ों को बदनाम किया गया है। क्या भारत की आर्थिक स्थिति वास्तव में इतनी मजबूत है, जितनी बताई जा रही है? जानें इस लेख में।
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भारत के आर्थिक आंकड़ों पर आईएमएफ का संदेह: क्या है असली सच?

भारत के आर्थिक आंकड़ों पर सवाल

जब भविष्य में इतिहास लिखा जाएगा, तो यह स्पष्ट होगा कि महालनोबिस की टीम द्वारा विकसित आत्म-साक्षात्कार की प्रक्रिया को नरेंद्र मोदी सरकार ने अपनी राजनीतिक आवश्यकताओं के लिए किस प्रकार से बदनाम किया। इस सरकार और इसके समर्थकों को शायद अभी तक यह नहीं पता है कि इसका देश को भविष्य में कितना बड़ा नुकसान उठाना पड़ सकता है।


कुछ मीडिया संस्थानों ने इस बार सरकारी प्रेस विज्ञप्तियों से आगे बढ़कर पत्रकारिता की, जिससे यह तथ्य सामने आया कि अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष (आईएमएफ) ने भारत के आर्थिक आंकड़ों को ‘सी ग्रेड’ में रखा है। पिछले वर्ष यह मुद्दा चर्चा में नहीं आया, जबकि तब भी आईएमएफ ने भारतीय आंकड़ों को इसी श्रेणी में रखा था।


आईएमएफ की परिभाषा के अनुसार, सी ग्रेड का मतलब है कि आंकड़ों में ऐसी खामियां हैं, जो संबंधित देश की अर्थव्यवस्था की निगरानी में बाधा डालती हैं। इसका अर्थ है कि आंकड़े उपलब्ध हैं, लेकिन वे पूरी तरह से विश्वसनीय नहीं हैं। इसके नीचे केवल डी ग्रेड होता है, जिसमें उन देशों को रखा जाता है जिनके आंकड़े पर्याप्त नहीं होते या इतने अविश्वसनीय होते हैं कि आईएमएफ वहां की अर्थव्यवस्था की निगरानी नहीं कर सकता।


आईएमएफ ने 2023 में भारत के आंकड़ों को किसी श्रेणी में नहीं रखा था। संभवतः उसने भारत सरकार से स्पष्टीकरण मांगे होंगे और संतोषजनक जानकारी न मिलने पर 2024 में भारत के आंकड़ों को सी ग्रेड में रखने का निर्णय लिया होगा। यह लगातार दूसरा वर्ष है जब भारतीय आंकड़ों को सी ग्रेड दिया गया है।


इस बार भी मुख्यधारा के मीडिया के एक छोटे हिस्से ने इस सूचना को प्रमुखता दी। अन्यथा, अधिकांश मीडिया ने आईएमएफ की रिपोर्ट के उन पहलुओं को ही प्रकाशित किया, जो भारतीय अर्थव्यवस्था के लिए सकारात्मक संकेत देते थे। सरकारी विज्ञप्तियों ने जो जानकारी दी, उसे मुख्यधारा के मीडिया ने फिर से आगे बढ़ाने का काम किया। यह प्रवृत्ति अब काफी समय से चल रही है। देश की बड़ी आबादी आज हकीकत से अनजान है, जिसका मुख्य कारण मीडिया का सरकारी प्रचार तंत्र में बदल जाना है।


छह महीने पहले, मीडिया के अधिकांश हिस्से ने विश्व बैंक की एक रिपोर्ट के बारे में भ्रामक खबरें दी थीं। उस समय मैंने लिखा था कि भारत के मुख्यधारा के मीडिया ने हाल के वर्षों में कई बदनामी झेली हैं, लेकिन इस क्रम में एक नया अध्याय जुड़ा, जब भारत में गरीबी और असमानता से संबंधित विश्व बैंक की रिपोर्ट के निष्कर्षों को संदर्भ से काटकर प्रमुखता से छापा गया।


तब यह बताया गया था कि भारत उन चंद देशों में है जहां आर्थिक समानता सबसे अधिक है, जबकि वास्तविकता कुछ और थी। विश्व बैंक ने कहा था कि भारत में उपभोग आधारित गिनी इंडेक्स 2011-12 के 28.8 से बेहतर होकर 2022-23 में 25.5 हो गया है, लेकिन आंकड़ों की सीमाओं के कारण असमानता का आकलन कम हो सकता है।


कुछ समय पहले, चरम गरीबी में जी रही आबादी के बारे में एक रिपोर्ट आई थी, जिसमें कहा गया था कि अब केवल 5.3 प्रतिशत आबादी इस अवस्था में है। जब इस पर भारत के शासक वर्ग और उनके नियंत्रित मीडिया में खुशी मनाई जा रही थी, तब विश्व बैंक ने स्पष्टीकरण देने की आवश्यकता महसूस की।


विश्व बैंक के प्रवक्ता ने कहा कि एक चौथाई भारतीय आज भी न्यूनतम सुविधाओं से वंचित हैं। इसका मतलब है कि 35 करोड़ से अधिक भारतीय अपनी बुनियादी जरूरतों को पूरा नहीं कर पा रहे हैं। प्रवक्ता ने कहा कि भारत में घरेलू कल्याण की स्थिति में सुधार हुआ है, लेकिन यह ध्यान में रखना चाहिए कि सर्वेक्षण विधियों में कई परिवर्तन किए गए हैं।


विश्व बैंक गरीबी का आकलन प्रति दिन प्रति व्यक्ति खर्च के आधार पर करता है। फिर भी, प्रवक्ता ने आंकड़ा संग्रहण की बदलती विधि के बारे में आगाह किया। उन्होंने कहा कि पुराने आंकड़ों की तुलना नए आंकड़ों से करना उचित नहीं है।


भारत में ऐसे सवालों पर आज बहस नहीं होती। इसलिए यह सवाल भी चर्चा से बाहर है कि जीडीपी वास्तव में समाज की खुशहाली का पैमाना है या नहीं।


विश्व बैंक और आईएमएफ नव-उदारवादी अर्थव्यवस्था के समर्थक हैं। इन संस्थाओं ने विवादास्पद नीतियों को तैयार किया है। इसलिए, जहां जीडीपी की ऊंची वृद्धि दर दर्ज हो या प्रति दिन खर्च के आधार पर गरीबी में गिरावट के संकेत मिलें, उन देशों को ये संस्थाएं अपना पोस्टर-ब्वॉय बना लेती हैं। लेकिन अगर ये संस्थाएं अब भारतीय आंकड़ों की गुणवत्ता पर संदेह कर रही हैं, तो यह एक गंभीर संकेत है।


यह स्थिति क्यों बनी? कुछ घटनाओं पर ध्यान दें:



  • 2017-18 में जब उपभोग सर्वेक्षण में उपभोग गिरने की बात सामने आई, तो उस रिपोर्ट को दबा दिया गया।

  • राष्ट्रीय सांख्यिकी आयोग के दो सदस्यों ने इस्तीफा दे दिया था।

  • जब बेरोजगारी 45 साल के सबसे ऊंचे स्तर पर थी, तो उस रिपोर्ट को चुनाव तक दबा कर रखा गया।

  • 2019 में एक रिपोर्ट में कहा गया कि 38 प्रतिशत कंपनियां या तो मौजूद नहीं थीं या बंद हो चुकी थीं।

  • अर्थशास्त्री प्रो। अरुण कुमार ने कहा कि भारत की जीडीपी जितनी बताई जाती है, वह वास्तविक जीडीपी से 48 प्रतिशत ज्यादा है।

  • सांख्यिकी विशेषज्ञ प्रो। प्रणब सेन ने स्वीकार किया कि भारत के आंकड़ों में समस्याएं हैं।

  • पूर्व मुख्य आर्थिक सलाहकार प्रो। अरविंद सुब्रह्मण्यम ने कहा कि जीडीपी वृद्धि दर संभवतः असल से 2.5 फीसदी ज्यादा हो सकती है।


यह विवरण बताता है कि आंकड़ों को मनमाफिक ढंग से पेश करने की प्रवृत्ति के कारण भारत के आर्थिक आंकड़ों पर संदेह पैदा हुआ है। अब आईएमएफ भी संदेह जताने वालों में शामिल हो गया है।


नवंबर के अंत में 2025-26 की दूसरी तिमाही के आर्थिक आंकड़े जारी किए गए, जिसमें जीडीपी में 8.2 प्रतिशत की वृद्धि दिखाई गई। लेकिन जाने-माने आर्थिक स्तंभकार विवेक कौल ने कहा कि ये आंकड़े सतही हैं।


जब आम अनुभव और सरकारी आंकड़ों के बीच इतना फासला है, तो आंकड़ों की सच्चाई पर सवाल उठेंगे।


भारत के आंकड़े संदिग्ध होना वास्तव में दुखद है। आजादी के बाद आंकड़े जुटाने और उनकी प्रस्तुति की संस्कृति ने भारत को विश्व स्तर पर प्रतिष्ठा दिलाई थी। इस संस्कृति का श्रेय प्रशांत चंद्र महालनोबिस को जाता है।


इतिहासकार निखल मेनन ने कहा है कि महालनोबिस ने केवल संख्याएं ही नहीं जुटाईं, बल्कि एक तरीका बनाया जिससे भारत खुद के बारे में जान सके।


भविष्य में जब इतिहास लिखा जाएगा, तो यह स्पष्ट होगा कि महालनोबिस की टीम द्वारा विकसित आत्म-साक्षात्कार की प्रक्रिया को नरेंद्र मोदी सरकार ने अपनी राजनीतिक आवश्यकताओं के लिए किस प्रकार से बदनाम किया।