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नारद मुनि की कथा: अहंकार और ईश्वर की कृपा का महत्व

इस लेख में नारद मुनि की एक अद्भुत कथा का वर्णन किया गया है, जिसमें अहंकार और ईश्वर की कृपा का महत्व उजागर होता है। जानें कैसे नारद ने कामदेव को पराजित किया और भगवान शंकर से मिली सलाह ने उनके जीवन को कैसे प्रभावित किया। यह कथा हमें सिखाती है कि सच्ची विजय वही है जिसमें 'मैं' का भाव न हो, बल्कि केवल भगवान की कृपा का अनुभव हो।
 

नारद मुनि का अद्भुत अनुभव

यह वास्तव में चौंकाने वाला है कि कभी-कभी एक पवित्र आत्मा पर भी अहंकार का प्रभाव पड़ सकता है। यह सामान्यतः असंभव लगता है, लेकिन देवर्षि नारद के संदर्भ में यह सत्य प्रतीत होता है। नारद मुनि एक महान तपस्वी थे, जिन्होंने एक बार गहन ध्यान में बैठकर कामदेव जैसे शक्तिशाली देवता को भी अपने तप से पराजित कर दिया। कामदेव ने अपने सभी बाण चलाए और वातावरण को मदमस्त कर दिया, लेकिन मुनि के मन में कोई हलचल नहीं हुई। वह पराजित होकर देवसभा में पहुंचे और देवराज इन्द्र को सब कुछ बताया। इन्द्र और अन्य देवता यह सुनकर हैरान रह गए। तुलसीदास जी ने इस प्रसंग को सुंदरता से व्यक्त किया है— “मुनि सुसीलता आपनि करनी। सुरपति सभाँ जाइ सब बरनी।। सुनि सब कें मन अचरजु आवा। मुनिहि प्रसंसि हरिहि सिरु नावा।।” अर्थात कामदेव ने इन्द्र सभा में जाकर नारद की महानता का बखान किया और सभी देवता चकित रह गए। सभी ने नारद की प्रशंसा की, लेकिन सिर भगवान विष्णु के चरणों में झुकाया, क्योंकि वे जानते थे कि ऐसी असंभव विजय केवल प्रभु की कृपा से ही संभव है।


नारद मुनि का गर्व और भगवान शंकर से संवाद

इस बीच, नारद मुनि के मन में संतोष के साथ थोड़ा गर्व भी उत्पन्न हो गया। उन्होंने सोचा कि इतना बड़ा कार्य किया, लेकिन इसकी गवाही कौन देगा? वन में न कोई मनुष्य है, न कोई साक्षी। पेड़-पौधे क्या प्रशंसा करेंगे? फिर विचार आया कि यदि मैं यह कथा सामान्य जन को सुनाऊँगा तो वे स्तुति करेंगे, लेकिन यदि प्रतिद्वंदी से प्रशंसा मिले तो वही सच्ची जीत होती है। उन्होंने तय किया कि भगवान शंकर को यह कथा सुनानी चाहिए, क्योंकि उन्होंने भी कामदेव को जलाया था। नारद मुनि मन में सोचते हुए कैलास पर्वत पहुँचे और खुशी से भगवान शंकर से बोले— “भगवान! मैंने भी कामदेव को जीत लिया।” वे गर्व से अपने पराक्रम का वर्णन करते रहे।


भगवान शंकर की प्रतिक्रिया

भगवान शंकर मुस्कराकर सब सुनते रहे, लेकिन उनके मन में विचार चल रहा था कि आज वही मुनि, जिनकी वाणी से मैं श्रीराम चरित का अमृत रस सुनता हूँ, उन्हीं के मुख से आज कामचरित का श्रवण करना पड़ रहा है। यह कथा तो विष के समान है। जब मैंने कालकूट विष पिया था तब भी इतना कष्ट नहीं हुआ जितना इस अहंकार मिश्रित कथा को सुनकर हो रहा है। लेकिन शंकर अत्यंत धैर्यवान हैं, उन्होंने मुनि का अपमान नहीं किया। वे सोचने लगे कि नारद की रक्षा तो भगवान विष्णु ने ही की थी। मुनि तो श्रीहरि के ध्यान में लीन थे, और जब भक्त ईश्वर के ध्यान में होता है, तब उसकी रक्षा की जिम्मेदारी स्वयं भगवान की होती है। ऐसे में कामदेव के बाण निष्फल हुए, यह मुनि की नहीं, प्रभु की विजय थी।


शंकर की विनती

कथा समाप्त होने पर भगवान शंकर ने नम्रता से कहा, “हे देवर्षि! आपने जो कहा वह सुन लिया। किंतु मेरी एक विनती है— इस घटना का वर्णन भगवान विष्णु के समक्ष मत करना। ऐसी बातें भक्त के अहंकार को बढ़ाती हैं, और जो अहंकार में डूब जाता है, वह अपनी साधना की सार्थकता खो देता है। यदि कहीं यह चर्चा छिड़े तो विषय बदल देना।” नारद मुनि ने बाहर से सिर झुकाकर हाँ कह दी, लेकिन मन में सोचने लगे कि शिवजी यह बात ईर्ष्या के कारण कह रहे हैं। उन्हें यह समझ नहीं आया कि शंकर की यह सलाह उनके हित के लिए थी।


सच्ची विजय का महत्व

यह प्रसंग हमें सिखाता है कि तपस्या, ज्ञान या सफलता— किसी भी क्षेत्र में— यदि “मैंने किया” का भाव आ जाए, तो वही अहंकार बनकर पतन का कारण होता है। कामदेव इंद्रियों को विचलित करता है, लेकिन अहंकार आत्मा को डगमगा देता है। सच्ची विजय वही है जिसमें ‘मैं’ का भाव न रहे, केवल ‘भगवान की कृपा’ का अनुभव हो। नारद मुनि की इस छोटी-सी भूल का परिणाम आगे चलकर बहुत बड़ा हुआ, जब उन्होंने वही कथा भगवान विष्णु को सुनाई और उनसे श्राप प्राप्त किया। लेकिन वह अगला प्रसंग है, जिसे जानना अगले अंक का विषय रहेगा।


जीवन में सफलता का सही दृष्टिकोण

इसलिए जीवन में जब भी कोई सफलता मिले, तो यह याद रखें कि शक्ति हमारी नहीं, ईश्वर की है; हम केवल उनके माध्यम हैं। यही भाव मनुष्य को गर्व से बचाता है और उसकी साधना को सार्थक बनाता है।