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भगवान शंकर और पार्वती जी के समक्ष जय और विजय की कथा

भगवान शंकर ने माता पार्वती को जय और विजय की कथा सुनाते हुए अहंकार के पतन और मुक्ति के मार्ग का रहस्य बताया। इस कथा में साधु संतों की महिमा और उनके प्रति सम्मान का महत्व उजागर किया गया है। जानें कैसे भगवान ने अपने भक्तों को उनके कर्मों के बंधन से मुक्त किया और किस प्रकार अहंकार ने उन्हें राक्षस योनि में जन्म लेने के लिए मजबूर किया। यह कथा हमें सिखाती है कि नम्रता और साधु-संगति का महत्व क्या है।
 

भगवान शंकर का दिव्य संवाद

भगवान शंकर ने माता पार्वती के सामने श्रीहरि के अद्भुत चरित्र का वर्णन करते हुए किसी भी रहस्य को छिपाने का प्रयास नहीं किया। उनका उद्देश्य था कि माता पार्वती हर तथ्य और प्रसंग को पूरी तरह समझें। पिछले अंक में भोलेनाथ ने जय और विजय की अभद्रता का उल्लेख किया था, जिसमें उन्होंने बताया कि कैसे अहंकार ने उनके विवेक को ढक लिया। वे यह भी नहीं समझ सके कि जो साधु संत उनके दरवाजे पर आए हैं, उनके चरण स्वयं बैकुण्ठ के द्वार हैं। साधुजनों के चरणों की धूल से संसार के पाप समाप्त हो जाते हैं, लेकिन उन्होंने उनके साथ दुष्टता का व्यवहार किया।




कबीर साहब ने सही कहा है —




“जिस मरने ते जग डरे, मेरे मन आनन्द।


मरने ही ते पाइए, पूर्ण परमानन्द॥”




इसका अर्थ है कि मृत्यु साधु के लिए भय नहीं, बल्कि परमानंद का द्वार है। इसी भावना को आगे बढ़ाते हुए वे कहते हैं-




“राम बुलावा भेजया, दिया कबीरा रोये।


जो सुख साधु संग महिं, सो बैकुण्ठ न होये॥”




अर्थात संतों की संगति और सेवा में जो आनंद है, वह बैकुण्ठ के सुख से भी अधिक है।




लेकिन जय और विजय इस सत्य को नहीं समझ सके। उन्हें यह भ्रम था कि सनकादि मुनि बैकुण्ठ के दर्शन के लिए तरस रहे हैं, जबकि वे स्वयं ब्रह्मस्वरूप हैं। जब मुनियों ने देखा कि द्वारपाल अपने अहंकार में अंधे हो चुके हैं, तब उन्होंने उन्हें शाप दिया-




“हे दुष्ट जनो! तुम दोनों भाइयों के कर्म और स्वभाव राक्षसों के समान हैं। भगवान विष्णु ने अपनी कृपा से तुम्हें बैकुण्ठ का द्वारपाल बना दिया, लेकिन तुमने उस पद की मर्यादा को भुला दिया। यह वैसा ही है जैसे नाली की ईंट को उठाकर मंदिर के गुंबद पर रख दिया जाए। यदि तुमने साधुजनों का अपमान न किया होता, तो यह स्थिति कभी न आती। अब तुम तीन जन्मों तक राक्षस योनि में जन्म लोगे, यही तुम्हारे कर्मों का फल है।”




शाप सुनते ही जय और विजय के मन से अहंकार का सारा गर्व उतर गया। वे संतों के चरणों में गिर पड़े और क्षमा याचना करने लगे। साधुजन तो करुणा के सागर होते हैं- उनके हृदय में क्षमा का सागर उमड़ पड़ा। मुनियों ने कहा, “यद्यपि तुम्हें राक्षस योनि में जन्म लेना पड़ेगा, तथापि प्रत्येक जन्म में स्वयं भगवान अवतरित होकर तुम्हारा उद्धार करेंगे। तुम्हारे पापों का अंत उन्हीं के हाथों से होगा।”




इस प्रकार शाप और वरदान दोनों एक साथ पूर्ण हुए।




पहले जन्म में जय और विजय क्रमशः हिरण्याक्ष और हिरण्यकशिपु बने। दोनों दैत्यों ने समस्त ब्रह्माण्ड में आतंक मचा दिया। तब भगवान विष्णु ने वराह अवतार लेकर हिरण्याक्ष का संहार किया और नरसिंह अवतार में प्रकट होकर हिरण्यकशिपु का उद्धार किया।




दूसरे जन्म में वही द्वारपाल रावण और कुंभकर्ण के रूप में जन्मे। उनके पराक्रम से त्रिलोक काँप उठा। रावण ने अहंकारवश माता सीता का अपहरण किया, और यही उसका विनाश का कारण बना। तब भगवान विष्णु ने अयोध्या के राजकुमार श्रीराम रूप में अवतार लेकर उन्हें मोक्ष प्रदान किया-




“भए निसाचर जाइ तेइ महाबीर बलवान।


कुंभकरन रावन सुभट सुर बिजई जग जान॥”




तीसरे जन्म में वही आत्माएँ शिशुपाल और दंतवक्र के रूप में उत्पन्न हुईं। इन दोनों का उद्धार स्वयं भगवान श्रीकृष्ण ने किया। इस प्रकार प्रभु ने अपने प्रिय भक्तों को उनके कर्मों के बंधन से मुक्त किया।




हे गिरिराजकन्या! यहाँ एक तथ्य स्पष्ट करना आवश्यक है- कि प्रभु द्वारा वध किए जाने पर भी तत्काल मुक्ति प्राप्त होना आवश्यक नहीं है। लोक में यह भ्रांति है कि भगवान के हाथों मृत्यु मिलने पर जीव मुक्त हो जाता है; किंतु यह सत्य नहीं।




मुक्ति तभी संभव है जब जीव, मानव शरीर प्राप्त कर, किसी पूर्ण संत की शरण में जाकर ब्रह्म-ज्ञान प्राप्त करता है। वही संत जीव को भीतर स्थित परमात्मा के साक्षात्कार का मार्ग दिखाते हैं। जब मनुष्य अपने हृदय में स्थित उस ज्योति-स्वरूप ईश्वर का निरंतर अनुभव करता है, तभी वह जन्म-मरण के बंधन से मुक्त होता है।




इस प्रकार जय-विजय की कथा हमें यह सिखाती है कि अहंकार ही पतन का मूल है। जिसने साधु, संत और गुरु की अवमानना की, उसका उत्थान असंभव है। बैकुण्ठ के द्वार पर रहकर भी यदि नम्रता न हो, तो वह स्थान भी नर्क समान हो जाता है; और नरक में रहकर भी यदि साधु-संग प्राप्त हो जाए, तो वही स्थान बैकुण्ठ बन जाता है। शंकर जी ने पार्वती जी से कहा- “हे उमा! देखो, प्रभु की लीला अचिंत्य है। वे अपने भक्तों के उद्धार के लिए ही अवतार लेते हैं। जय और विजय के अहंकार ने ही संसार को यह दिखाया कि प्रभु का करुणा-सागर कभी सूखता नहीं। उन्होंने अपने ही द्वारपालों को तीन बार जन्म देकर मोक्ष प्रदान किया। इसी से सिद्ध होता है कि भगवान का न्याय और दया दोनों अनंत हैं।”




पार्वती जी विस्मय में डूबी सुन रही थीं। उनके मुख पर भक्ति और करुणा की आभा छा गई। उन्होंने विनम्र भाव से पूछा- “नाथ! प्रभु के अवतार का यह कारण तो आपने बताया, अब अन्य कारण भी कृपया कहें, जिससे यह रहस्य पूर्ण रूप से हृदय में स्थापित हो जाए।”




महादेव मुस्कराए, और बोले - “देवि! प्रभु के अवतार का प्रत्येक कारण अद्भुत है। उनके प्रत्येक कर्म में संसार के कल्याण का रहस्य छिपा है। अगले प्रसंग में मैं तुम्हें बताऊँगा कि किस प्रकार धर्म की स्थापना, अधर्म का विनाश, और भक्तों की रक्षा के लिए भगवान स्वयं अवतार लेते हैं।”




इतना कहकर भगवान शंकर समाधि-मग्न हो गए। पार्वती जी ने उनके चरणों में शीश झुकाया और श्रीहरि के नाम का जप करने लगीं। चारों दिशाएँ “जय श्रीराम” के पवित्र नाद से गूँज उठीं।




क्रमशः...(अगले अंक में–प्रभु के अवतार के अन्य कारणों का दिव्य रहस्य)




- सुखी भारती