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भारतीय रुपया 90 प्रति डॉलर के स्तर से नीचे, आर्थिक चिंताएँ बढ़ीं

भारतीय रुपया पहली बार 90 प्रति अमेरिकी डॉलर के नीचे गिर गया है, जिससे आर्थिक चिंताएँ और आम लोगों के बजट पर दबाव बढ़ गया है। आयात पर निर्भरता, महंगाई में वृद्धि, और विदेश में पढ़ाई कर रहे छात्रों के लिए बढ़ते खर्च जैसे मुद्दे सामने आए हैं। इस गिरावट के पीछे कई कारण हैं, जिनमें व्यापार वार्ताओं का असफल रहना और विदेशी निवेश में कमी शामिल हैं। रिजर्व बैंक की स्थिति भी महत्वपूर्ण है, क्योंकि वह रुपये को स्वाभाविक रूप से समायोजित होने दे रहा है। क्या आने वाले महीनों में स्थिति स्थिर होगी? जानें इस लेख में।
 

रुपये की गिरावट का प्रभाव

बुधवार को भारतीय रुपया पहली बार 90 प्रति अमेरिकी डॉलर के नीचे गिर गया, जिससे आर्थिक विशेषज्ञों में चिंता और आम लोगों के बजट पर दबाव बढ़ गया है। मंगलवार को डॉलर के मुकाबले रुपया 89.94 पर बंद हुआ था। हालांकि यह गिरावट पहली नजर में बड़ी नहीं लगती, लेकिन इसके प्रभाव व्यापक स्तर पर महसूस किए जा रहे हैं।


आयात पर निर्भरता और महंगाई

भारत की अर्थव्यवस्था मुख्य रूप से आयात पर निर्भर है, विशेषकर कच्चे तेल, इलेक्ट्रॉनिक्स, खाद्य और खाद्य तेल जैसी वस्तुओं पर। रुपये की कमजोरी से घरेलू महंगाई में वृद्धि हो रही है। भारत लगभग 90% कच्चा तेल और 60% से अधिक खाद्य तेल का आयात करता है, जिससे ईंधन, रसोई का खर्च और परिवहन लागत में वृद्धि होने की संभावना है। इस कारण आने वाले महीनों में महंगाई का दबाव आम परिवारों पर बढ़ने की आशंका है।


विदेश में पढ़ाई करने वाले छात्रों पर प्रभाव

विदेश में अध्ययन कर रहे छात्रों के लिए यह स्थिति और भी चुनौतीपूर्ण हो गई है। डॉलर में फीस चुकाने वाले छात्रों को पिछले वर्ष की तुलना में 5 से 10 लाख रुपये अधिक खर्च करना पड़ सकता है। उदाहरण के लिए, 50,000 डॉलर की वार्षिक फीस अब लगभग 45 लाख रुपये तक पहुंच गई है। इसके अलावा, डॉलर में लिए गए शिक्षा ऋण की अदायगी भी 12-13% तक बढ़ गई है, जिससे मध्यम वर्गीय परिवारों पर अतिरिक्त बोझ पड़ रहा है।


रुपये की कमजोरी के कारण

रुपये की गिरावट के पीछे कई कारण हैं। भारत-अमेरिका व्यापार वार्ताओं का असफल रहना और अमेरिकी टैरिफ का बढ़ना भारतीय बाजारों पर नकारात्मक प्रभाव डाल रहा है। इससे निवेशकों का विश्वास कमजोर हुआ है और विदेशी पोर्टफोलियो निवेशक इस वर्ष अब तक लगभग 17 बिलियन डॉलर भारतीय शेयर बाजारों से निकाल चुके हैं। अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष (IMF) ने हाल ही में भारत की मुद्रा प्रबंधन व्यवस्था को "स्थिर" से "क्रॉल-जैसी" श्रेणी में रखा है, जिसका अर्थ है कि रिजर्व बैंक अब रुपये को सख्ती से बचाने के बजाय धीरे-धीरे बाजार के अनुरूप चलने दे रहा है।


आर्थिक संकेतक और रुपये पर दबाव

विश्लेषकों का कहना है कि बढ़ता व्यापार घाटा, एफडीआई में सुस्ती और शेयर बाजार से विदेशी निकासी रुपये पर लगातार दबाव बना रहे हैं। हालांकि, एक वर्ग ऐसा भी है जिसे रुपये की गिरावट से फायदा हो रहा है, जैसे विदेशों से आने वाली रेमिटेंस पर निर्भर परिवार। भारत ने 2024 में लगभग 138 बिलियन डॉलर की रेमिटेंस प्राप्त की, जिससे 500 डॉलर की मासिक भेजी गई राशि पहले की तुलना में 5,000 रुपये अधिक हो गई है।


रिजर्व बैंक की स्थिति

रिजर्व बैंक फिलहाल रुपये को स्वाभाविक रूप से समायोजित होने दे रहा है। उसके पास 690 बिलियन डॉलर का विदेशी मुद्रा भंडार है, जिससे जरूरत पड़ने पर हस्तक्षेप किया जा सकता है। लेकिन मौजूदा संकेत बताते हैं कि रिजर्व बैंक अल्पकालिक बचाव के बजाय दीर्घकालिक स्थिरता को प्राथमिकता दे रहा है।


आर्थिक स्थिति का संकेत

कुल मिलाकर रुपये का 90 के नीचे जाना केवल एक आंकड़ा नहीं है, बल्कि यह देश की आर्थिक स्थिति, वैश्विक परिस्थितियों और घरेलू नीतियों के बीच बदलते संतुलन का संकेत है। जैसे-जैसे रुपये में गिरावट जारी रहती है, वैसे-वैसे आम भारतीय परिवारों की मासिक योजनाओं और रोजमर्रा के खर्चों पर इसका प्रभाव गहराता जा रहा है।


भविष्य की चुनौतियाँ

इन आर्थिक उतार-चढ़ावों के बीच सवाल यही है कि आने वाले महीनों में स्थिति स्थिर होगी या भारतीय उपभोक्ताओं को और कठिन दौर का सामना करना पड़ेगा। वर्तमान माहौल के अनुसार, चुनौतियाँ आगे भी जारी रहने की संभावना है।