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बिहार के चुनावी वादों का वित्तीय बोझ: क्या है समाधान?

बिहार में चुनावी वादों का वित्तीय बोझ बढ़ता जा रहा है। मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने करोड़ों मतदाताओं को नकद ट्रांसफर का वादा किया है, लेकिन क्या यह संभव है? इस लेख में हम इस संकट और संभावित समाधानों पर चर्चा करेंगे। क्या शिक्षा और स्वास्थ्य के बजट में कटौती की जाएगी? जानें इस महत्वपूर्ण मुद्दे के बारे में।
 

बिहार में वित्तीय चुनौतियाँ

पिछले वित्तीय वर्ष में यदि किसी राज्य का राजकोषीय घाटा जीएसडीपी के नौ प्रतिशत से अधिक है और बजट का 64 प्रतिशत हिस्सा निश्चित मदों में जाता है, तो यह सवाल उठता है कि अतिरिक्त धन का स्रोत क्या होगा?


बिहार में चुनावों से पहले मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने करोड़ों मतदाताओं को नकद ट्रांसफर करने का वादा किया, जो उनके लिए एक सफल रणनीति साबित हुई। एनडीए के पास एक मजबूत जातीय समीकरण है, जिसने पिछले दो दशकों से उन्हें एक ठोस मतदाता आधार प्रदान किया है। फिर भी, 'कल्याणकारी कदमों' के माध्यम से अतिरिक्त वोट जुटाने की चुनौती उनके सामने बनी हुई है। इस बार विधानसभा चुनाव में उन्होंने कुछ अजीब वादे भी किए हैं। एक अनुमान के अनुसार, इससे राज्य के बजट पर 28,000 करोड़ रुपये का बोझ पड़ा है, जिसमें से एक बड़ा हिस्सा हर साल का है।


यदि किसी राज्य का राजकोषीय घाटा जीएसडीपी के नौ प्रतिशत से अधिक है और बजट का 60 प्रतिशत हिस्सा निश्चित मदों में जाता है, तो यह सवाल महत्वपूर्ण है कि अतिरिक्त धन का स्रोत क्या होगा? चुनावों से पहले वृद्धावस्था और विधवा पेंशन में वृद्धि और मुख्यमंत्री महिला रोजगार योजना के तहत 10,000 रुपये का अग्रिम भुगतान लगभग डेढ़ करोड़ महिलाओं को देकर नीतीश कुमार ने अपने वादों की विश्वसनीयता को बनाए रखा। इसका प्रभाव मतदान में स्पष्ट रूप से देखा गया।


हालांकि, अब सवाल यह है कि 1,90,000 रुपये देने, पीएम किसान योजना के तहत 3,000 रुपये का टॉप-अप भुगतान करने, मछुआरा समुदाय को 9,000 रुपये देने, अनुसूचित जाति के छात्रों को हर महीने 2,000 रुपये देने, अति पिछड़ा समुदाय के कुछ हिस्सों को 10 लाख रुपये की सहायता देने, और बेरोजगारी भत्ता के रूप में 1,000 रुपये हर महीने देने के लिए धन कैसे जुटाया जाएगा? क्या इसके लिए शिक्षा और स्वास्थ्य के पहले से ही सीमित बजट में कटौती की जाएगी? या बुनियादी ढांचे में निवेश को कम किया जाएगा? या फिर ऋण का बोझ बढ़ाकर अगली पीढ़ियों के भविष्य को दांव पर लगाया जाएगा? यह स्पष्ट है कि बिना पूंजीगत निवेश में भारी कटौती या ऋण लिए इन वादों को पूरा करना संभव नहीं है। लाभान्वित मतदाता इसके परिणामों की चिंता करें, यह उम्मीद करना निराधार है, खासकर जब राजनीतिक स्वार्थ हर तार्किक चिंता को बलि चढ़ा चुका हो!