महाकुंभ ने स्थापित किए अनेक कीर्तिमान
डॉ. राघवेन्द्र शर्मा
इस बार के महाकुंभ ने अपनी व्यापकता के चलते अनेक कीर्तिमान स्थापित कर दिए। इसका सबसे बड़ा कारण यही है कि महाकुंभ 144 साल बाद आया है। पिछले महाकुंभ में जो जीवित थे, वे अब नहीं हैं। जो इस महाकुंभ में पुण्य स्नान कर पाए हैं, वे अगले महाकुंभ में उपस्थित नहीं होंगे। क्यों है महाकुंभ महत्वपूर्ण और इन सबको अपने आप में समेटने वाला तीर्थराज प्रयाग किन मायनों में विशिष्ट है। आईए इन सभी पहलुओं पर धार्मिक, ऐतिहासिक और वैज्ञानिक नजरिए से दृष्टिपात करते हैं।
जैसा कि सर्वविदित है महाकुंभ में सबसे अधिक मान्यता गंगा, यमुना और सरस्वती की है। तो सबसे पहले इन नदियों के महत्व पर वार्ता करते हैं। जहां तक गंगाजी की बात है तो उनका धार्मिक महत्व जीव मात्र के उद्धार से ही जुड़ा हुआ है। यह कथा सभी ने कई बार पढ़ी होगी कि भगवान श्रीराम के पूर्वज महाराज सगर ने अश्वमेध यज्ञ का घोड़ा छोड़ा तो उसे इंद्र ने चोरी करके कपिल मुनि के आश्रम में बांध दिया। ऐसा उसने यज्ञ को असफल करने के लिए किया था। क्योंकि इंद्र को आशंका थी, यह यज्ञ संपन्न होते ही राजा सगर इंद्रासन के अधिकारी हो जाएंगे। घोड़े की सुरक्षा में तैनात राजा सगर के पुत्र उसे खोजते हुए कपिल मुनि के आश्रम में पहुंचे और वहां घोड़े को पाकर कपिल मुनि को ही दोषी समझ बैठे और उन पर मिथ्या आरोप करने लगे। इस पर कपिल मुनि ने क्रोधाग्नि से राजा सगर के सभी पुत्रों को भस्म कर दिया। उनके उद्धार के लिए अनेक सूर्यवंशियों ने तपस्या की ओर अपने प्राण होम कर दिए। इसी वंश में भागीरथ जी उत्पन्न हुए, उन्होंने तपस्या करके गंगा मां को पृथ्वी पर आने के लिए मना लिया। किंतु उनका तेज प्रवाह पृथ्वी को रसातल में ना डुबा दे, इसके लिए भागीरथ जी ने शंकर जी की तपस्या की। उन्होंने प्रसन्न होकर गंगाजी को शीश पर धारण करने के लिए सहमति जता दी। इस प्रकार भगवान वामन के चरण धोने के लिए ब्रह्मा जी के कमंडल से उत्पन्न होने वाली गंगाजी देवलोक से चलकर पृथ्वी की ओर बढ़ीं तो उनका तेज प्रवाह रोकने के लिए शंकर जी ने उन्हें अपनी जटाओं में बांध लिया और फिर सुव्यवस्थित तरीके से उनकी धारा को पृथ्वी की ओर प्रवाहित कर दिया। फलस्वरूप राजा सगर के पुत्रों का उद्धार तो हुआ ही, गंगा मैया तभी से जीव मात्र का पृथ्वी पर कल्याण कर रही हैं।
इसके बाद यमुना जी का क्रम आता है। धर्मग्रंथों के मुताबिक गंगा ज्ञान का, तो यमुनाजी भक्ति रस का प्रतीक हैं। यही कारण है कि यमुनाजी का भारतीय वांग्मय में उत्कृष्ट स्थान है। पुराणों में यमुनाजी के रंग को श्रीकृष्ण के रंग से जोड़ा गया है। यमुनाजी को श्रीकृष्ण की भक्ति में लीन नदी कहा जाता है। भक्ति साहित्य कहता है, यमुना सरस्वती की सहायक नदी है जो बाद में गंगा में मिल जाती है। उस मिलन स्थल को संगम कहते हैं। शास्त्र में यमुना को यमराज की बहन का दर्जा भी दिया गया है। जैसा कि धर्मग्रंथ बताते हैं, यमराज और यमुना दोनों का ही रंग काला है। मान्यता यह भी है कि यमुना और यमराज सूर्य की दूसरी पत्नी छाया की संतानें हैं। छाया दिखने में काली होती है, इसलिए यमुना और यमराज का रंग भी काला ही हुआ। पौराणिक कथा ये भी है कि श्रीकृष्ण ने यमुना में ही कालिया नाग का वध किया था। फलस्वरूप कालिया नाग के विष से यमुना नदी का रंग और अधिक काला हो गया। तभी से यमुना की कृष्ण भक्ति चरमोत्कर्ष तक पहुंची और आशीर्वाद स्वरूप वह देव नदी गंगा मैया के समकक्ष स्थापित हुईं और तीर्थराज प्रयाग में इन दोनों महान नदियों का मिलन हो गया।
तीसरा क्रम सरस्वती नदी का आता है। तीर्थराज प्रयाग में संगम के पास स्थित एक रहस्यमयी स्थल सदैव ही भक्तों के बीच आकर्षण का केंद्र बना रहा है। यह स्थान है सरस्वती कूप, जिसे सरस्वती नदी का गुप्त स्रोत माना जाता है। धार्मिक मान्यता है कि सरस्वती नदी का प्रवाह इसी कूप से होता है और यही जल संगम में जाकर मिलता है। प्रयागराज किले के भीतर स्थित इस कुएं को वैज्ञानिकों और शोधकर्ताओं ने भी अध्ययन के माध्यम से संगम से जुड़ा पाया है। 2016 में किए गए एक परीक्षण में इस कूप के जल में रंग मिलाकर देखा गया। बाद में यह रंग युक्त जल त्रिवेणी के संगम स्थल पर प्रकट होता पाया गया, जिससे सिद्ध हुआ कि यह जल त्रिवेणी संगम में प्रवाहित होता है। उल्लेखनीय है कि इसे सरस्वती कूप कहा जाता है। धार्मिक मान्यताओं के अनुसार, मां सरस्वती का उद्गम बद्रीनाथ के पास माणा गांव से होता है। एक पौराणिक कथा के अनुसार, महर्षि वेदव्यास जब 18 पुराणों की रचना कर रहे थे, तो सरस्वती नदी की तीव्र प्रवाह वाली जलधारा से उत्पन्न ध्वनि के कारण भगवान गणेश को सुनने में कठिनाई हुई। तब भगवान शिव के आदेश पर सरस्वती नदी पाताल लोक की ओर प्रवाहित हो गईं।
एक कथा यह भी प्रचलन में है कि जब महर्षि वेदव्यास जी और गणेश जी पुराणों की रचना कर रहे थे तब सरस्वती नदी का तीव्र प्रवाह वाला जल तेज कोलाहल मचा रहा था। इससे गणेश जी और वेदव्यास जी की एकाग्रता भंग हो रही थी। गणेश जी ने सरस्वती नदी से धीरे बहने का आग्रह किया, इस पर भी सरस्वती नदी का प्रवाह कम नहीं हुआ तो क्रोधित होकर गणेश जी ने सरस्वती नदी को भूमिगत होने का शाप दे दिया। तब से सरस्वती नदी का प्रवाह भूमि के नीचे की ओर हो गया। लेकिन जब वे प्रयागराज पहुंचीं, तो भगवान विष्णु के अवतार वेणी माधव ने उन्हें धरातल पर लौटने और संगम में विलीन होने के लिए राजी किया। इसी कारण सरस्वती कूप को अदृश्य सरस्वती का प्रमाण माना जाता है।
वैदिक काल में सरस्वती की बड़ी महिमा थी और इसे ’परम पवित्र’ नदी माना जाता था क्योंकि इसके तट के पास रह कर तथा इसी नदी के पानी का सेवन करते हुए ऋषियों ने वेद रचे औरा वैदिक ज्ञान का विस्तार किया। सरस्वती नदी को प्लाक्ष्वती, वेदवती, वेद्समृति, अन्नवती, और उदकवती जैसे नामों से भी जाना जाता है। सरस्वती नदी जहां गंगा और यमुना से मिलती है, वह संगम स्थल तीर्थराज प्रयाग में सर्वाधिक पवित्र माना जाता है। यही कारण है कि महाकुंभ में संगम सभी श्रद्धालुओं के लिए श्रद्धा का केंद्र बना रहता है।
ऐसा भी नहीं है कि तीर्थराज प्रयाग केवल गंगा यमुना और सरस्वती के संगम की वजह से ही विश्व प्रसिद्ध है। ऐसी अन्य कारण भी है जिनके चलते प्रयाग पूजनीय बना हुआ है। इन्हीं में से एक विशेषता है, इस तीर्थस्थल में अक्षय वट का होना। हमारे धार्मिक ग्रंथ बताते हैं कि ब्रह्माजी ने अक्षयवट के पास स्थित हवनकुंड में प्रथम यज्ञ और हवन किया था। इसमें 33 कोटि देवी-देवताओं का आह्वान किया गया था। यज्ञ समाप्त होने के बाद ही इस नगर का नाम प्रयाग रखा गया। ’प्र’ का अर्थ प्रथम और ’याग’ का अर्थ यज्ञ-अनुष्ठान से है। वैसे भी अक्षय’ का शाब्दिक अर्थ ही कभी नष्ट न होना होता है। मान्यता तो यह भी है कि भगवान शिव और माता पार्वती ने अपने हाथों से इस अक्षयवट को यहां पर लगाया था। धार्मिक मान्यता है कि ब्रह्मा, विष्णु और महेश, सदैव अक्षय वट में विराजमान रहते हैं। जब धरती पर प्रलय होती है तो उस समय भगवान विष्णु बालक रूप धारण करके इसके पत्ते पर अवतरित होते हैं और सृष्टि का संचालन करते हैं। इसलिए इस वृक्ष के पत्ते को तोड़ने की मनाही है। जो पत्ते अपने आप नीचे गिर जाते हैं, श्रद्धालु उन्हें ही प्रसाद समझ कर अपने घरों को ले जाते हैं। श्री रामचरितमानस में गोस्वामी तुलसीदास जी ने लिखा है कि प्रभु श्रीराम को जब 14 वर्ष का वनवास मिला तो वे सीताजी और लक्ष्मणजी के साथ चित्रकूट की ओर जाते समय इस वटवृक्ष के नीचे ठहरे थे।
धर्म और आध्यात्मिक क्षेत्र के विद्वानों का मत है कि शुद्ध अंतर्मन के साथ यहां आने से सभी पाप नष्ट हो जाते हैं और सभी मनोकामनाएं पूर्ण होती हैं। इसकी एक परिक्रमा पूरे ब्रह्मांड के बराबर है। इतिहास में दर्ज है कि औरंगजेब ने इस अक्षयवट को कई बार कटवाया और जलवाया। नष्ट करने का हरसंभव प्रयास भी किया, लेकिन उसे सफलता नहीं मिली।
तीर्थराज प्रयाग स्थित अकबर किले के अंदर पातालपुरी मंदिर में अक्षय वट के अलावा 43 देवी-देवताओं की मूर्तियां स्थापित हैं। इसमें ब्रह्माजी द्वारा स्थापित वो शूल टंकेश्वर शिवलिंग भी है, जिस पर अकबर की पत्नी जोधाबाई जलाभिषेक किया करती थीं। शूल टंकेश्वर मंदिर में किए जाने वाले जलाभिषेक का जल सीधे अक्षयवट की जड़ों में जाता है। वहां से जल जमीन के अंदर से होते हुए सीधे संगम में मिलता है। हमारे ऋषि मुनि बताते रहे हैं कि अक्षयवट के नीचे से ही अदृश्य सरस्वती नदी भी बहती है। संगम स्नान के बाद अक्षय वट के दर्शन-पूजन से वंशवृद्धि से लेकर धन-धान्य की संपूर्णता तक की मनौती पूरी होती है।
इस अक्षय वट को लेकर एक और कथा प्रचलन में है कि जब राजा दशरथ की मृत्यु के बाद पिंडदान की बेला आई तो भगवान राम पूजन सामग्री एकत्रित करने चले गए। उस वक्त देवी सीता अकेली बैठी थीं, तभी दशरथ जी प्रकट हुए और बोले कि मुझे जोरों की भूख लगी है, अतः मेरा जल्दी से पिंडदान करो। उस समय सीता जी को कुछ नहीं सूझा। उन्होंने अक्षयवट के नीचे बालू का पिंड बनाकर राजा दशरथ के लिए दान किया। उस दौरान उन्होंने ब्राह्मण, तुलसी, गौ, फाल्गुनी नदी और अक्षय वट को पिंडदान से संबंधित दान-दक्षिणा दी।
जब राम जी पहुंचे तो सीता ने कहा कि पिंडदान हो गया। अक्षयवट ने इस बात की साक्षी दी और सीताजी द्वारा दी गई रामचंद्र जी की मुद्रा रूपी दक्षिणा उन्हें दिखाई। इस पर सीताजी ने प्रसन्न होकर अक्षयवट को आशीर्वाद दिया और कहा कि संगम स्नान करने के बाद जो कोई अक्षयवट का पूजन और दर्शन करेगा, उसी को संगम स्नान का फल मिलेगा। धार्मिकता से हटकर देखा जाए तो प्रयाग का ऐतिहासिक महत्व भी कम नहीं है।
प्रयागराज किले के निकट एक प्राचीन इमारत है, जिसका निर्माण सम्राट अशोक ने 249 ईसा पूर्व में करवाया था। इसमें अशोक स्तंभ विशेष रूप से स्थापित कराया गया था। इस इमारत में प्राचीन शिलालेख भी लगा हुआ है। जिसे देखने के लिए देश और दुनिया से पर्यटक आते हैं।
प्रयाग में ऐतिहासिक महत्व का चंद्रशेखर आजाद पार्क भी है। यहां क्रांतिकारी चंद्रशेखर आजाद की विशाल प्रतिमा स्थित है। साल 1931 में इसी पार्क में क्रांतिकारी चन्द्रशेखर आजाद अंग्रेजों के साथ गोलीबारी करते हुए स्वयं का बलिदान किया। जब उनके पास का गोला-बारूद खत्म हो गया और उनकी पिस्टल में केवल एक गोली बची, जिसे उन्होंने अपनी कनपटी पर रखकर दाग दी। आजाद अंग्रेजों के हाथों मरना अपनी शान के खिलाफ समझते थे इसीलिए उन्होंने स्वयं के हाथों वीरगति प्राप्त करने का मार्ग अपनाया। 27 फरवरी 1931 में 24 साल की उम्र में उन्होंने अपना बलिदान दिया। यह पार्क 133 एकड़ भूमि तक फैला हुआ है।
इस प्रकार के अनेक धार्मिक, ऐतिहासिक प्रतीक चिन्ह तीर्थराज प्रयाग और महाकुंभ का आकर्षण कई गुना बढ़ा रहे हैं। यहां पहुंचने वाले श्रद्धालु एक ओर अमृत स्नान करके पुण्य लाभ प्राप्त कर रहे हैं, तो वहीं ऐतिहासिक स्थलों पर जाकर भारत के गौरवशाली अतीत से साक्षात् हो रहे हैं।
(लेखक, स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं।)
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हिन्दुस्थान समाचार / संजीव पाश