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नवरात्रि में कल्पारंभ: महत्व और विधि

नवरात्रि के दौरान कल्पारंभ एक महत्वपूर्ण पूजा है, जो विशेष रूप से षष्ठी तिथि पर की जाती है। यह पूजा मां दुर्गा का आह्वान करने का एक पवित्र तरीका है, जो भक्तों के लिए सकारात्मक ऊर्जा और आशीर्वाद लाती है। इस लेख में हम जानेंगे कि कल्पारंभ का क्या महत्व है, इसे कैसे किया जाता है, और इसके पीछे की धार्मिक मान्यताएँ क्या हैं।
 

कल्पारंभ का महत्व


नवरात्र की षष्ठी तिथि पर की जाने वाली पूजा का महत्व
शारदीय नवरात्र का आरंभ हो चुका है। भारत के विभिन्न हिस्सों में इसे अपनी-अपनी परंपराओं के अनुसार मनाया जाता है। विशेषकर उत्तर-पूर्वी राज्यों जैसे उत्तर प्रदेश, झारखंड, बिहार और पश्चिम बंगाल में नवरात्र का आरंभ कल्पारंभ से होता है।


समय का शुभ आरंभ

कल्पारंभ का अर्थ है शुभ समय का आरंभ। इन क्षेत्रों में मां दुर्गा की पूजा षष्ठी से नवमी तक होती है, और इस दिन माता का स्वागत विधिपूर्वक किया जाता है।


कल्पारंभ की परिभाषा

कल्पारंभ एक विशेष पूजा है, जिसे नवरात्र की षष्ठी तिथि पर किया जाता है। इसे अकाल बोधन भी कहा जाता है, जिसका अर्थ है मां दुर्गा का समय से पहले आह्वान करना। मान्यता है कि दक्षिणायन काल में देवी-देवता योगनिद्रा में होते हैं, इसलिए शरद ऋतु में मां दुर्गा का आह्वान अकाल माना जाता है।


पूजा की विधि

इस दिन भक्तजन कलश स्थापना, पवित्र मंत्रोच्चार और वैदिक विधियों से देवी दुर्गा का पूजन करते हैं। पूजा प्रात: काल में शुरू होती है, जिसमें भक्त पूजा और व्रत का संकल्प लेते हैं। एक कलश में शुद्ध जल भरकर इसे बेल के पेड़ के नीचे रखा जाता है।


संध्या में अकाल बोधन किया जाता है, जिसमें माता को असमय नींद से जगाया जाता है। इस समय विभिन्न मंत्रों का उच्चारण करके माता की पूजा की जाती है। अंत में भक्तों में प्रसाद वितरित किया जाता है।


महाकाली की उपासना का समय

उत्तर-पूर्वी भारत में यह पर्व चार दिनों तक चलता है, जो षष्ठी से नवमी तक होता है। विशेषकर पश्चिम बंगाल में कल्पारंभ का महत्व अत्यधिक है। इस दौरान धुनुची नृत्य, सिंदूर खेला, और कोलाबोऊ पूजा जैसे उत्सव बड़े धूमधाम से मनाए जाते हैं।


कल्पारंभ को माता महाकाली की उपासना का सर्वोत्तम समय माना जाता है। इस समय श्रद्धा और भक्ति से पूजा करने से माता अपने भक्तों पर कृपा बनाए रखती हैं।