शरद पूर्णिमा: चंद्रमा की रोशनी में जीवन की पूर्णता का उत्सव
शरद पूर्णिमा का महत्व
चंद्रमा की सोलह कलाएं मानव गुणों का प्रतीक हैं — पूर्ण चंद्रमा का दर्शन जीवन की संपूर्णता का संकेत देता है। इसीलिए कहा जाता है कि योगेश्वर श्रीकृष्ण सभी सोलह कलाओं से संपन्न थे। शरद पूर्णिमा की रात को चंद्रमा के दर्शन और पूजा को आत्मशुद्धि और मानसिक शांति का प्रतीक माना जाता है।
6 अक्टूबर - शरद पूर्णिमा पर विशेष
भारतीय संस्कृति में हर पर्व केवल आस्था का नहीं, बल्कि जीवन की लय और ऋतु के संतुलन का उत्सव होता है। इनमें से एक है शरद पूर्णिमा — आश्विन मास की शुक्ल पक्ष की पूर्णिमा, जब चंद्रमा अपनी सोलह कलाओं के साथ सबसे चमकदार रूप में धरती पर उतरता है। इसे कोजागरी पूर्णिमा या कौमुदी उत्सव भी कहा जाता है। इस दिन भगवान विष्णु और माता लक्ष्मी की पूजा का विधान है। मान्यता है कि इस रात चंद्रकिरणें अमृतमयी होती हैं, जो स्वास्थ्य और सौभाग्य लाती हैं। इसी विश्वास के साथ लोग दूध और चावल की खीर बनाकर चंद्रमा की रोशनी में रखते हैं और अगले दिन उसे प्रसाद के रूप में ग्रहण करते हैं।
ज्योतिष के अनुसार, चंद्रमा की सोलह कलाएं मानव गुणों का प्रतीक हैं — पूर्ण चंद्रमा का दर्शन जीवन की पूर्णता का संकेत है। इसलिए कहा गया है कि योगेश्वर श्रीकृष्ण सभी सोलह कलाओं से सम्पन्न थे। इसी भावना में शरद पूर्णिमा की रात को चंद्रमा के दर्शन और पूजा को आत्मशुद्धि और मानसिक शांति का प्रतीक माना गया है। नवविवाहिताएं इसी दिन से अपने पूर्णिमा व्रत की शुरुआत करती हैं।
भारत के कई राज्यों में यह पर्व फसल कटाई के उत्सव के रूप में भी मनाया जाता है। वर्षा ऋतु के अंत और शरद के आगमन के साथ यह मौसम नदियों को स्वच्छ और हवा को हल्का बनाता है। मान्यता है कि चंद्रमा की चांदनी अमृत बरसाती है, जो मन में उत्साह और शरीर में स्फूर्ति भरती है। यह दिन वर्ष की बारह पूर्णिमाओं में सबसे विशेष माना जाता है, क्योंकि इसी दिन चंद्रमा अपने संपूर्ण सौंदर्य में प्रकट होता है।
इस रात की चांदनी का प्रभाव केवल आध्यात्मिक नहीं, बल्कि औषधीय भी माना गया है। चंद्रमा की किरणों से प्रसाद में रखी खीर में औषधीय गुण बढ़ जाते हैं — यह खांसी, जुकाम, जलन और नेत्रों के रोगों में लाभकारी मानी गई है। ज्योतिषीय मान्यता है कि शरद पूर्णिमा की रात चंद्रमा के साथ मंगल आदि ग्रहों का विशेष योग बनता है, जो शुभता और समृद्धि लाता है। इसी कारण इस दिन नए कार्यों, व्रतों और शपथों की शुरुआत को मंगलकारी माना गया है।
पौराणिक ग्रंथों में इस दिन के अनेक उल्लेख हैं। कहा गया है कि समुद्र मंथन के समय माता लक्ष्मी का अवतरण इसी दिन हुआ था। मान्यता है कि शरद पूर्णिमा की रात माता लक्ष्मी पृथ्वी पर भ्रमण करती हैं और जो जागरण कर श्रद्धा से उनकी पूजा करता है, उसके घर में समृद्धि आती है। इसलिए इस रात को को-जाग्रत — यानी “कौन जाग रहा है?” — का पर्व भी कहा गया है।
वृंदावन और ब्रज में यह रात्रि रास पूर्णिमा के रूप में प्रसिद्ध है। कहा जाता है, इसी रात श्रीकृष्ण ने गोपियों के साथ महारास किया था — चंद्रमा की रोशनी में प्रेम और भक्ति का वह दिव्य नृत्य।
लोककथाओं में एक कथा इस पर्व की शिक्षा को और गहराई देती है। कहा गया है, एक साहुकार की दो पुत्रियों में से बड़ी हर पूर्णिमा का व्रत श्रद्धा और निष्ठा से करती थी, जबकि छोटी केवल औपचारिकता निभाती थी। परिणाम यह हुआ कि बड़ी बहन की संतानें सुखी रहीं, जबकि छोटी की संतानें जीवित न रहीं। पश्चाताप में जब उसने पूरी श्रद्धा से व्रत किया, तो चमत्कार हुआ — मरा हुआ बच्चा जीवित हो उठा। तबसे नगर के लोग इस दिन का व्रत पूर्ण श्रद्धा से करने लगे।
शरद पूर्णिमा के इस पर्व में आस्था के साथ-साथ एक गहरी जीवन-दृष्टि छिपी है — कि जब मन पूर्ण हो, नीयत शुद्ध हो, और प्रकृति के साथ तालमेल हो, तभी जीवन में अमृत उतरता है। चंद्रमा की यह उजली रात केवल आकाश में नहीं, हमारे भीतर भी जगमगाती है। यही वह रात्रि है, जब आकाश से उतरता चांद धरती के हृदय को छू लेता है — और जीवन को अमृतमय बना देता है।