क्या नेपाल का भारत में विलय बदल सकता था दक्षिण एशिया की राजनीति?
नेहरू का ऐतिहासिक निर्णय
Jawaharlal Nehru Nepal Decision : भारत के पहले प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू ने एक महत्वपूर्ण मोड़ पर निर्णय लिया, जिसने दक्षिण एशिया की राजनीति को प्रभावित किया। यह जानकारी पूर्व राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी की आत्मकथा ‘द प्रेजिडेंशियल इयर्स’ में सामने आई है। उन्होंने बताया कि नेपाल के राजा त्रिभुवन बीर बिक्रम शाह ने नेहरू को प्रस्ताव दिया था कि नेपाल को भारत के एक प्रांत के रूप में शामिल किया जाए। उस समय नेपाल राणा शासन के अधीन था और राजा त्रिभुवन लोकतंत्र की स्थापना के लिए प्रयासरत थे, साथ ही भारत जैसे स्थिर देश में शामिल होकर सुरक्षा की चाह रखते थे.
नेहरू ने प्रस्ताव को ठुकराया
हालांकि, नेहरू ने यह प्रस्ताव यह कहते हुए अस्वीकार कर दिया कि नेपाल एक स्वतंत्र राष्ट्र है और उसकी संप्रभुता को बनाए रखना भारत की प्राथमिकता होनी चाहिए। नेहरू की नीति थी कि पड़ोसी देशों के साथ सहयोग किया जाए, न कि उन पर नियंत्रण स्थापित किया जाए। उन्होंने नेपाल में लोकतंत्र को बढ़ावा देने के लिए वहां के राजशाही शासन का समर्थन किया, लेकिन नेपाल को भारत में विलय करने का कोई इरादा नहीं रखा।
इंदिरा गांधी का दृष्टिकोण
प्रणब मुखर्जी ने इस ऐतिहासिक घटना को याद करते हुए लिखा कि यदि यह प्रस्ताव इंदिरा गांधी को दिया गया होता, तो शायद परिणाम भिन्न होते। सिक्किम के मामले में इंदिरा गांधी ने भारत के साथ विलय को स्वीकार किया था, जिससे वह भारत का पूर्ण राज्य बन गया। यह अंतर नेहरू और इंदिरा गांधी की कार्यशैली में स्पष्ट है — नेहरू नैतिक और कूटनीतिक दृष्टिकोण अपनाते थे, जबकि इंदिरा अवसरों का राजनीतिक रूप से प्रभावी उपयोग करती थीं।
नेपाल में वर्तमान राजनीतिक संकट
आज नेपाल एक बार फिर गंभीर राजनीतिक संकट का सामना कर रहा है। प्रधानमंत्री केपी शर्मा ओली के इस्तीफे के बाद वहां अराजकता का माहौल बन गया है। संसद से लेकर राष्ट्रपति भवन और सरकारी कार्यालयों तक भारी विरोध प्रदर्शन हो रहे हैं। खासकर देश की युवा पीढ़ी, जो सरकार की नीतियों और सोशल मीडिया पर प्रतिबंध के खिलाफ सड़कों पर उतर आई है। हालांकि प्रतिबंध हटा लिया गया है, लेकिन जनता का गुस्सा अभी भी ठंडा नहीं हुआ है.
नेहरू के निर्णय का प्रभाव
इस अस्थिरता ने एक बार फिर यह सवाल उठाया है कि यदि नेहरू ने उस समय नेपाल के विलय का प्रस्ताव स्वीकार कर लिया होता, तो आज की स्थिति क्या होती? क्या नेपाल भारत के साथ मिलकर स्थिर और लोकतांत्रिक दिशा में होता, या इतिहास कुछ और ही रूप लेता? यह घटना न केवल इतिहास की एक भूली हुई परत को उजागर करती है, बल्कि यह भी दिखाती है कि किसी नेता के एक निर्णय से क्षेत्रीय राजनीति की दिशा कैसे बदल सकती है.