भारत की टीवी बहसें: अपमान और आक्रामकता का एक नया युग
टीवी बहसों का आक्रामक स्वरूप
एक अध्ययन के अनुसार, टीवी पर बहसों में एंकरों का आक्रामक लहजा 80 प्रतिशत से अधिक होता है, जो दर्शकों पर नकारात्मक मनोवैज्ञानिक प्रभाव डालता है। ये आंकड़े दर्शाते हैं कि अब बहसें सूचना का साधन नहीं रह गई हैं, बल्कि प्रचार का एक उपकरण बन गई हैं। भारत की टीवी बहसें अब लोकतंत्र का मजाक बन चुकी हैं। अपमानजनक प्रवक्ताओं की उपस्थिति न केवल बहसों को निरर्थक बनाती है, बल्कि समाज में विभाजन भी पैदा करती है।
संवाद का ह्रास
भारत को दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र माना जाता है, और संवाद एवं विमर्श इसकी नींव हैं। लेकिन अब टीवी बहसें एक ऐसा मंच बन गई हैं जहां तर्कों की जगह अपमान, चीख-पुकार और राजनीतिक दुष्प्रचार हावी हो गया है। प्राइम टाइम के शो में विभिन्न राजनीतिक दलों के प्रवक्ता एक-दूसरे पर व्यक्तिगत हमले करते हैं, जिससे बहसें निष्कर्षहीन हो जाती हैं। यह न केवल दर्शकों के समय की बर्बादी है, बल्कि समाज में ध्रुवीकरण को बढ़ावा देने वाला एक खतरनाक माध्यम भी बन गया है।
टीवी बहसों का इतिहास और वर्तमान स्थिति
टीवी बहसों का इतिहास भारत में 1990 के दशक से शुरू होता है, जब निजी चैनलों का आगमन हुआ। प्रारंभ में ये बहसें मुद्दों पर तथ्यपरक चर्चा का माध्यम थीं, लेकिन अब ये एक शोरगुल भरी जंग बन गई हैं। विभिन्न अध्ययनों से यह स्पष्ट है कि भारतीय टीवी डिबेट्स में आक्रामकता और विषाक्त भाषा का स्तर चिंताजनक रूप से बढ़ा है।
अपमानजनक भाषा का प्रभाव
राजनीतिक दलों के प्रवक्ताओं द्वारा अपमानजनक भाषा का उपयोग इस समस्या का केंद्रीय बिंदु है। एक बहस में एक प्रवक्ता को ‘जयचंद’ और ‘गद्दार’ कहा गया, जिससे उसे हार्ट अटैक आया। यह घटना टीवी डिबेट्स की विषाक्तता का एक उदाहरण है। इसी तरह, अन्य प्रवक्ताओं ने एक-दूसरे को ‘नाली का कीड़ा’ और ‘वैंप’ जैसे शब्दों से संबोधित किया।
शारीरिक हिंसा का उदय
यह समस्या बढ़ रही है। मध्य प्रदेश के टीकमगढ़ में एक टीवी बहस के दौरान एक नेता पर कुर्सी फेंकी गई, जिसके बाद एफआईआर भी दर्ज हुई। ये उदाहरण दर्शाते हैं कि अपमान अब शारीरिक हिंसा तक पहुंच गया है।
टीआरपी और राजनीतिक दबाव
चैनल और एंकर ऐसे निरर्थक बहसों को क्यों बढ़ावा देते हैं? क्या यह टीआरपी की होड़ है या राजनीतिक दबाव? अधिकांश प्रवक्ता राजनीतिक अनुभव की कमी रखते हैं और केवल टीवी पर चिल्लाने के लिए नियुक्त होते हैं। यदि राजनीतिक दल योग्य प्रवक्ताओं को चुनते, तो बहसें अधिक सभ्य और उत्पादक होतीं।
समाज पर प्रभाव
ऐसी बहसों के सामाजिक प्रभाव गंभीर हैं। वे समाज को ध्रुवीकृत करती हैं, विशेषकर हिंदू-मुस्लिम मुद्दों पर। एक शोध के अनुसार, बहसें ‘फिक्स्ड मैच’ की तरह होती हैं, जहां अपमान और झगड़े पूर्वनियोजित होते हैं।
समाधान के उपाय
समाधान के लिए बहुआयामी प्रयास जरूरी हैं। राजनीतिक दलों को प्रवक्ताओं के चयन में सुधार करना चाहिए। इसके अलावा, ‘ट्राई’ और सूचना मंत्रालय को सख्त नियम लागू करने चाहिए। दर्शकों को जागरूक होना चाहिए और ऐसे चैनलों का बहिष्कार करना चाहिए जो सनसनी फैलाते हैं।
निष्कर्ष
भारत की टीवी बहसें लोकतंत्र का मजाक बन चुकी हैं। यदि चैनल और एंकर पत्रकारिता का सम्मान करना चाहते हैं, तो उन्हें टीआरपी के पीछे भागना छोड़कर जिम्मेदार संवाद को प्राथमिकता देनी चाहिए।