रामधारी सिंह दिनकर की कविताएँ: हिंदी दिवस 2025 पर विशेष
रामधारी सिंह दिनकर: एक महान कवि
रामधारी सिंह दिनकर केवल एक कवि नहीं थे, बल्कि उन्होंने अपनी लेखनी से समाज को नई दिशा दी। उनकी प्रसिद्ध कविता 'सिंहासन खाली करो कि जनता आती है' ने स्वतंत्रता संग्राम के दौरान युवाओं में जोश भर दिया। उन्हें साहित्य अकादमी पुरस्कार और 1972 में ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित किया गया। दिनकर की कविताओं में वीरता, प्रेम और करुणा का अनूठा मिश्रण देखने को मिलता है। हिंदी पखवाड़ा और हिंदी दिवस 2025 के अवसर पर, आइए उनकी कुछ महत्वपूर्ण रचनाओं को पढ़कर उनकी विरासत को याद करें!
रामधारी सिंह दिनकर की प्रसिद्ध कविताएँ
हिंदी साहित्य में रामधारी सिंह दिनकर का नाम सबसे पहले आता है। 23 सितंबर 1908 को बिहार के बेगूसराय जिले के सिमरिया गांव में जन्मे दिनकर न केवल एक कवि थे, बल्कि स्वतंत्रता सेनानी और गहरे विचारक भी थे। उनकी रचनाएँ जैसे 'कुरुक्षेत्र', 'रश्मिरथी' और 'हुंकार' आज भी लोगों के दिलों में बसी हुई हैं। उनकी लेखनी में देशभक्ति, समाज सुधार और मानवीय भावनाओं का अद्भुत संगम देखने को मिलता है। इस खास मौके पर, आइए दिनकर की 5 प्रमुख कविताओं को पढ़ें और उनकी गहराई को समझें।
सिंहासन खाली करो कि जनता आती है
सदियों की ठंडी-बुझी राख सुगबुगा उठी,
मिट्टी सोने का ताज पहन इठलाती है;
दो राह, समय के रथ का घर्घर-नाद सुनो,
सिंहासन खाली करो कि जनता आती है।
जनता? हां, मिट्टी की अबोध मूरतें वही,
जाड़े-पाले की कसक सदा सहने वाली,
जब अंग-अंग में लगे सांप हो चुस रहे
तब भी न कभी मुंह खोल दर्द कहनेवाली।
जनता? हां, लंबी - बड़ी जीभ की वही कसम,
“जनता, सचमुच ही, बड़ी वेदना सहती है।”
“सो ठीक, मगर, आखिर, इस पर जनमत क्या है?”
‘है प्रश्न गूढ़ जनता इस पर क्या कहती है?”
मानो, जनता ही फूल जिसे अहसास नहीं,
जब चाहो तभी उतार सजा लो दोनों में;
अथवा कोई दूधमुंही जिसे बहलाने के
जन्तर-मन्तर सीमित हों चार खिलौनों में।
लेकिन होता भूडोल, बवंडर उठते हैं,
जनता जब कोपाकुल हो भृकुटि चढाती है;
दो राह, समय के रथ का घर्घर-नाद सुनो,
सिंहासन खाली करो कि जनता आती है।
हुंकारों से महलों की नींव उखड़ जाती,
सांसों के बल से ताज हवा में उड़ता है,
जनता की रोके राह, समय में ताव कहां?
वह जिधर चाहती, काल उधर ही मुड़ता है।
अब्दों, शताब्दियों, सहस्त्राब्द का अंधकार
बीता गवाक्ष अंबर के दहके जाते हैं
यह और नहीं कोई, जनता के स्वप्न अजय
चीरते तिमिर का वक्ष उमड़ते जाते हैं।
सब से विराट जनतंत्र जगत का आ पहुंचा,
तैंतीस कोटि-हित सिंहासन तय करो
अभिषेक आज राजा का नहीं, प्रजा का है,
तैंतीस कोटि जनता के सिर पर मुकुट धरो।
आरती लिये तू किसे ढूंढता है मूरख,
मन्दिरों, राजप्रासादों में, तहखानों में?
देवता कहीं सड़कों पर गिट्टी तोड़ रहे,
देवता मिलेंगे खेतों में, खलिहानों में।
फावड़े और हल राजदण्ड बनने को हैं,
धूसरता सोने से श्रृंगार सजाती है;
दो राह, समय के रथ का घर्घर-नाद सुनो,
सिंहासन खाली करो कि जनता आती है।
कलम, आज उनकी जय बोल
जला अस्थियाँ बारी-बारी
चिटकाई जिनमें चिंगारी,
जो चढ़ गये पुण्यवेदी पर
लिए बिना गर्दन का मोल
कलम, आज उनकी जय बोल।
जो अगणित लघु दीप हमारे
तूफानों में एक किनारे,
जल-जलाकर बुझ गए किसी दिन
माँगा नहीं स्नेह मुँह खोल
कलम, आज उनकी जय बोल।
कृष्ण की चेतावनी
वर्षों तक वन में घूम-घूम,
बाधा-विघ्नों को चूम-चूम,
सह धूप-घाम, पानी-पत्थर,
पांडव आये कुछ और निखर।
सौभाग्य न सब दिन सोता है,
देखें, आगे क्या होता है।
कलम या कि तलवार
दो में से क्या तुम्हे चाहिए कलम या कि तलवार
मन में ऊँचे भाव कि तन में शक्ति विजय अपार
अंध कक्ष में बैठ रचोगे ऊँचे मीठे गान
या तलवार पकड़ जीतोगे बाहर का मैदान
कलम देश की बड़ी शक्ति है भाव जगाने वाली,
दिल की नहीं दिमागों में भी आग लगाने वाली.