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(संशोध‍ित) सूरजपुर : 73 साल बाद दोबारा राष्ट्रपति से मिलने की उम्मीद लिए बैठे बसंत पंडो

 




सूरजपुर, 19 नवंबर (हि.स.)। छत्तीसगढ़ के सूरजपुर जिले में एक ऐसी कहानी दोबारा जीवित हो उठी है, जिसने स्वतंत्र भारत के शुरुआती दौर को अपनी स्मृतियों में संभालकर रखा है। 80 वर्षीय बसंत पंडो आज भी उस दिन को उतनी ही स्पष्टता से याद करते हैं, जैसे वह घटना अभी-अभी घटी हो। लगभग सात दशक पुरानी यह स्मृति सिर्फ एक व्यक्ति का अनुभव नहीं, बल्कि ऐतिहासिक धरोहर का वह अनमोल हिस्सा है, जिसमें एक मासूम बालक और देश के प्रथम राष्ट्रपति डॉ. राजेंद्र प्रसाद के बीच हुए अद्भुत स्नेह का भाव छिपा है।

बसंत पंडो उस समय मात्र छह वर्ष के थे। सूरजपुर में आयोजित एक कार्यक्रम के दौरान उनकी नजरें अचानक लोगों की भीड़ को चीरती हुई उस महान व्यक्तित्व पर पड़ी थीं, जिनकी तस्वीरें किताबों और दीवारों पर देखी जाती थीं। लोगों की जयघोष के बीच छोटा-सा गोलू नाम का यह बालक राष्ट्रपति डॉ. राजेंद्र प्रसाद तक पहुंच गया। राष्ट्रपति प्रसाद ने उसे अपने हाथों में उठाया, दुलारा और उसी क्षण उसका नाम गोलू से बदलकर बसंत रख दिया। वह पल न सिर्फ उस बच्चे की जिंदगी का मोड़ बना, बल्कि उसके भीतर आजीवन एक गर्व और आत्मीयता की भावना भी भर गया।

बसंत पंडो कहते हैं कि, उस मुलाकात ने उन्हें यह एहसास कराया कि बड़े पद सिर्फ अधिकार का प्रतीक नहीं होते, बल्कि संवेदनशीलता और अपनापन ही किसी नेता की सबसे बड़ी पहचान है। तब से लेकर आज तक बसंत पंडो हर बार जब राष्ट्रीय नेतृत्व की बात करते हैं, तो राष्ट्रपति प्रसाद के स्नेह की स्मृति उनकी आंखों में चमक ले आती है।

अब जब वर्तमान राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू 20 नवंबर को अंबिकापुर पहुंचने वाली हैं, उसी स्मृति की लौ एक बार फिर प्रज्वलित हो उठी है। उन्हें ऐसा महसूस होता है जैसे इतिहास फिर से खुद को दोहराने की तैयारी कर रहा हो। उम्र के इस पड़ाव पर पहुंचकर भी बसंत पंडो के भीतर मिलने की वही उत्सुकता है, जो 1952 में एक छह वर्षीय बालक के दिल में थी। अंतर सिर्फ इतना है कि तब वे राष्ट्रपति से अनायास मिले थे, और आज वे वर्षों की उस अनमोल स्मृति को फिर से साझा करने की इच्छा से भरे हुए हैं।

बसंत पंडो बताते हैं कि जनजातीय समाज के लिए राष्ट्रपति मुर्मू का आगमन किसी पर्व से कम नहीं है। समाज के लोग इस यात्रा को अपनी संस्कृति, पहचान और सम्मान से जोड़कर देख रहे हैं। वहीं बसंत पंडो मन ही मन यह उम्मीद पाले हुए हैं कि शायद उन्हें भी कुछ क्षणों का ऐसा अवसर मिल जाए, जहां वे वर्तमान राष्ट्रपति को अपनी 73 वर्ष पुरानी सच्ची और मार्मिक स्मृति सुनाकर उस अद्भुत क्षण को फिर से जी सकें।

उनके गांव और आसपास के क्षेत्रों में भी इस चर्चा ने उत्साह बढ़ा दिया है। लोग कहते हैं कि किसी व्यक्ति का दो अलग-अलग राष्ट्रपतियों से मिल पाना सामान्य बात नहीं, बल्कि यह उस क्षेत्र के लिए भी गौरव का विषय है। यह सिर्फ एक मुलाकात नहीं होगी, बल्कि अतीत और वर्तमान के बीच एक ऐसी जीवंत कड़ी स्थापित होगी जो आने वाली पीढ़ियों को भी प्रेरित करेगी।

बसंत पंडो की जिंदगी का यह अध्याय यह भी दर्शाता है कि छोटे-से छोटे क्षण किस तरह किसी व्यक्ति की पूरी जीवन यात्रा को प्रभावित कर सकते हैं। एक स्पर्श, एक नाम, एक मुस्कान ये मामूली सी लगने वाली चीजें भी जीवन में ऐसा स्थान बना लेती हैं, जिसे समय का कोई भी प्रवाह मिटा नहीं पाता।

जैसे-जैसे राष्ट्रपति दौरे की तारीख नजदीक आ रही है, बसंत पंडो की बेचैनी भी बढ़ रही है। वे हर दिन उस पुराने क्षण को याद करते हैं, जैसे वह फिर दोहराया जाना चाहता हो। उनके मन की आशा साफ झलकती है। यदि किस्मत ने साथ दिया, तो सरगुजा की धरती एक बार फिर एक ऐसी ऐतिहासिक मुलाकात की साक्षी बनेगी, जिसे पूरे क्षेत्र में वर्षों तक याद रखा जाएगा।

यह कहानी सिर्फ बसंत पंडो की व्यक्तिगत स्मृति नहीं, बल्कि उस नागरिक भावना का प्रतीक है जिसमें देश का साधारण व्यक्ति भी अपनी यादों, भावनाओं और इच्छाओं को राष्ट्र के प्रथम नागरिक तक पहुंचाने की आशा रखता है। यह उम्मीद ही लोकतंत्र की वह असली ताकत है, जो हर भारतीय के भीतर जीवित रहती है।

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हिन्दुस्थान समाचार / विष्णु पांडेय