बस्तर दशहरा में शामिल हाेने के लिए आंगा देव को स्वयं आमंत्रित करते हैं, तहसीलदार
जगदलपुर, 23 सितंबर (हि.स.)। बस्तर दशहरा में शामिल हाेने के लिए परंपरानुसार तहसीलदार के लिखित निमंत्रण पर 350 से अधिक देवी-देवताओं के साथ आंगा देव को भी न्यौता दिया जाता है, आंगा देव को बुलाने सरकारी प्रोटोकाल का उपयोग किए जाने की रियासत कलीन परंपरा है। किसी खास गांव के आंगा देव को बुलाने के लिए श्रद्धालु तहसीलदार को लिखित आवेदन देते हैं। इस आवेदन के साथ तयशुदा फीस भी पटाते हैं। इस रकम को प्राप्त करने के बाद तहसीलदार आंगा देव को बुलाने निमंत्रण जारी करता है। यह पत्र व सूचना संबंधित गांव के थाने को दी जाती है। निमंत्रण आवेदन की प्रतिलिपि के साथ श्रद्धालु उस गांव के थाने पहुंचते है। यहां से उन्हें गांव के मांझी-मुखिया आंगा के पास ले जाते हैं। आंगा अपनी आराध्य देवी की अनुमति लेकर आवेदकों के साथ उनके गांव की ओर रवाना होते हैं।
किसी भी शुभ कार्य या उत्सव में, केवल मुख्य देवी-देवताओं को ही नहीं, बल्कि बस्तर (छत्तीसगढ़) के आदिवासी समुदायों के 'आंगा देव' को भी सम्मानपूर्वक आमंत्रित किया जाता है। आंगा देव एक तरह के 'चलायमान देवता' होते हैं, जिन्हें लकड़ी की डोली में सजाया जाता है। यह परंपरा दर्शाती है कि इन आदिवासियों के लिए आंगा देव भी उतने ही महत्वपूर्ण हैं जितना कि अन्य देवी-देवता और इनका पूजन प्रत्येक शुभ कार्य से पहले किया जाता है।
करेकोट परगना के मंगलू मांझी ने बताया कि वे बड़े डोंगर व छोटे डोंगर की देवी और आंगा देव को न्यौता देने गए थे। उन्होंने बताया कि आंगा बनने तथा प्राण प्रतिष्ठा के बाद भंगाराम देवी, उसकी परीक्षा भी लेती है। बस्तर के केशकाल में भंगाराम देवी मंदिर स्थित है। आम तौर पर पूछा जाता है कि किस कुल की देवी या देवता हो, तुम्हारे माता पिता कौन हैं? आंगा जबरदस्ती बनाया गया है, या तुमने प्रेरित किया। पुजारी किसे चुना, जैसे सवाल भी किये जाते हैं। उत्तर से संतुष्ट होने पर उसे आंगा देव की मान्यता दी जाती है। उन्होंने बताया कि आंगा लकड़ी के दो गोल लट्ठों से बनाया जाता है। लट्ठों को जोड़ने का कार्य वृक्ष की छाल से बांधकर किया जाता है। मध्य में एक अन्य लकड़ी लगाई जाती है, जिसका अगला सिरा नाग के फन जैसा बनाया जाता है। इसे कोको कहा जाता है। जब आंगा को निकाला जाता है या उसके द्वारा देव का आह्वान किया जाता है, तब आंगा का श्रृंगार किया जाता है। इस समय आंगा का पुजारी आंगा के कोको पर चांदी के पतरे का बना नागफन फिट करता है तथा आंगा की भुजाओं पर लोगों द्वारा मनौती पूर्ण होने पर चढ़ाई गई चांदी की पत्तियां बांधता है और चारों कोनों पर मोर पंख के गुच्छे फिट करता है। कोई भी व्यक्ति जिसे देव ने सपने में या अन्य प्रकार आंगा बनाने की प्रेरणा दी हो, वह आंगा बना सकता है। एक बार आंगा की स्थापना हो गई, तो फिर उसे सदैव के लिए निभाना पड़ता है।
बस्तर की संस्कृति के जानकार घनश्याम सिंह नाग द्वारा बताया गया है कि देवी मां तेलिन सती के अनुसार आंगा देव प्राय: इरा, साजा, खैर या बेल की लकड़ी से बनाया जाता है। सम्बंधित देवता तय करते हैं कि किस पेड़ को काटा जाये, यह तय हो जाने के बाद गांव के लोगों के साथ सम्पर्क साधा जाता है, उसके बाद जिस गांव में पेड़ होता है, उस गांव के लोग वधू पक्ष की, और आंगा बनाने वाले गांव के लोग वर पक्ष की भूमिका निभाते हैं। वर पक्ष वालों को आदिवासी परम्परा के अनुसार तीन बार महला मांगने जाना पड़ता है। अंतिम महला में विवाह की तिथि तय की जाती है। इसके बाद जिन्हें आंगा बनना होता है, वे गाजे -बाजे के साथ बारात लेकर पहुंचते हैं। वृक्ष को काटने से पहले कन्यादान की रस्म पूरी होती है। नेंग के रूप में वस्त्र, चांवल, दाल, बकरा, मुर्गा, नारियल, कबूतर व पेड़ काटने के बदले कुछ नगदी दी जाती है। रात में नाच गाकर विवाहोत्सव मनाते हैं। पवित्रता का पूरा ध्यान रखा जाता है, उसके बाद उसकी प्राण प्रतिष्ठा की जाती है। समय-समय पर आंगा देवता का जन्मदिन भी मनाया जाता है।
हिन्दुस्थान समाचार / राकेश पांडे