अंबिकापुर राजघराना : सरगुजा रियासत संस्कृति, वीरता और प्रजा-सेवा की रही सजीव मिसाल
रघुनाथ शरण सिंहदेव की जनप्रिय दास्तां
अंबिकापुर, 12 अक्टूबर (हि.स.)। छत्तीसगढ़ के उत्तर भाग में स्थित सरगुजा जिला अपने राजसी इतिहास और गौरवशाली परंपरा के लिए जाना जाता है। सरगुजा रियासत केवल एक भौगोलिक इकाई नहीं, बल्कि संस्कृति, वीरता और प्रजा-सेवा की सजीव मिसाल रही है। जिन महाराजाओं ने यहां शासन किया, उन्होंने न केवल राज किया बल्कि प्रजा के दिलों में अमिट छाप छोड़ी।
सरगुजा के शासक रघुवंशी वंश के थे, जो भगवान श्रीराम की कुल परंपरा से संबंध रखते थे। ऐतिहासिक अभिलेखों के अनुसार सरगुजा रियासत की स्थापना 1613 ईस्वी के आसपास हुई। प्रारंभिक शासकों में महाराज जयंतदेव और महाराज लक्ष्मणदेव का नाम प्रमुख है। बाद के वर्षों में यह रियासत छत्तीसगढ़ की सबसे प्रभावशाली और संगठित रियासतों में गिनी जाने लगी।
महाराज रघुनाथ शरण सिंहदेव थे दूरदर्शी और जनप्रिय शासक
20वीं सदी में सरगुजा का नाम विशेष रूप से महाराज रघुनाथ शरण सिंहदेव से जुड़ा। वे न केवल राजसी गरिमा के प्रतीक थे, बल्कि एक सच्चे प्रजावत्सल और दूरदर्शी शासक भी। उनके शासनकाल में शिक्षा, कृषि और जल संरक्षण पर विशेष ध्यान दिया गया। उन्होंने ग्रामीण क्षेत्रों में तालाबों का निर्माण कराया, विद्यालय खोले और प्रजा से प्रत्यक्ष संवाद की परंपरा शुरू की। अंग्रेजों के शासन में भी उन्होंने रियासत की स्वायत्तता बनाए रखी। महाराज की नीति थी। “राजनीति नहीं, प्रजानीति ही असली धर्म है।”
अंबिकापुर का राजमहल आज भी उस गौरवशाली युग की गवाही देता है। ब्रिटिशकालीन वास्तुकला में निर्मित यह महल 1900 के दशक की शुरुआत में बनवाया गया था। महामाया मंदिर, टाइगर हिल, देवगढ़ का किला और उदयपुर के प्राचीन मंदिर ये सभी सरगुजा महाराजों की सांस्कृतिक दृष्टि का प्रमाण हैं। रियासत के समय राजमहल में दरबार लगता था, जहाँ जनता अपनी समस्याएँ सीधे महाराज के सामने रखती थी। यह परंपरा सरगुजा को “जनदरबार की भूमि” बनाती है।
प्रजा और शासन का था आत्मीय रिश्ता
सरगुजा महाराज अपने प्रजाजनों से अत्यंत आत्मीय संबंध रखते थे। वृद्ध ग्रामीण आज भी कहते हैं। “राजा हमर सिर म माथे रहिस, ओखर राज म भुखा नई रहिस कोनो।” उस दौर में भूमि व्यवस्था न्यायपूर्ण थी और किसानों से अत्यधिक कर नहीं लिया जाता था। वनवासियों के जीवन और संस्कृति की रक्षा के लिए भी विशेष नीति बनाई गई थी।
स्वतंत्रता संग्राम और रियासत का योगदान
भारत के स्वतंत्रता संग्राम के दौरान सरगुजा के कई युवाओं ने देशभक्ति की लौ जलाए रखी। महाराज रघुनाथ शरण सिंहदेव ने परोक्ष रूप से स्वतंत्रता आंदोलन का समर्थन किया और अपने दरबार में आने वाले कई क्रांतिकारियों को सहयोग दिया। भारत की स्वतंत्रता के बाद 1948 में सरगुजा रियासत का भारतीय संघ में विलय हुआ। महाराज ने लोकतंत्र को खुले मन से स्वीकार किया और जनसेवा के कार्यों में सक्रिय रहे।
स्थानीय इतिहासकार डॉ. शंभूनाथ त्रिपाठी, जो सरगुजा रियासत पर शोध कार्य कर चुके हैं, वह बताते हैं कि सरगुजा महाराजों का शासन केवल राजशाही नहीं था, बल्कि सामाजिक चेतना का युग था। महाराज रघुनाथ शरण सिंहदेव को आधुनिक सरगुजा का जनक कहा जा सकता है। उन्होंने शिक्षा, जल प्रबंधन और वन संरक्षण के क्षेत्र में जो दृष्टिकोण अपनाया, वह अपने समय से बहुत आगे था।”
राजमहल आज भी अंबिकापुर की पहचान है। महाराज के वंशज आज भी सामाजिक और सांस्कृतिक कार्यक्रमों में सक्रिय रहते हैं। सरगुजा का लोकजीवन, लोकगीत, परंपराएं और यहाँ के लोग आज भी राजघराने के उस दौर को गर्व से याद करते हैं।
सरगुजा रियासत का इतिहास केवल एक साम्राज्य की कहानी नहीं, बल्कि प्रजा-प्रेम, संस्कृति और आत्मगौरव की अमर गाथा है। महाराज रघुनाथ शरण सिंहदेव जैसे शासकों ने यह साबित किया कि सत्ता का असली उद्देश्य शासन नहीं, बल्कि जनसेवा है। आज भी सरगुजा की हवा में उनके युग की गंध महसूस होती है। जहाँ राज था, पर रजवाड़ापन नहीं... जहाँ शासन था, पर अन्याय नहीं।
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हिन्दुस्थान समाचार / विष्णु पांडेय