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कुरुक्षेत्र की प्राचीन वन संस्कृति और उपवन विकास की आवश्यकता

कुरुक्षेत्र, जो प्राचीन समय में सात वनों से समृद्ध था, अब उपवन विकास की आवश्यकता महसूस कर रहा है। इस लेख में जानें कि कैसे इन वनों का महत्व आज भी जीवित है और किस प्रकार उपवन विकसित करने से कुरुक्षेत्र की पहचान को नया स्वरूप मिल सकता है। पौराणिक साहित्यों में कुरुक्षेत्र का वर्णन और ऋषि मुनियों के आश्रमों का इतिहास भी इस चर्चा का हिस्सा है।
 

कुरुक्षेत्र की ऐतिहासिक धरोहर

कुरुक्षेत्र। यह पवित्र भूमि केवल तीर्थों और नदियों की नहीं, बल्कि प्राचीन समय में यह सात वनों से भी समृद्ध थी। हालांकि, समय के साथ इनमें से कुछ वनों का अस्तित्व समाप्त हो गया और कुछ के नाम बदल गए हैं, लेकिन कुरुक्षेत्र की महिमा के संदर्भ में इन वनों का उल्लेख आज भी किया जाता है। कई गांवों के नाम इन वनों से जुड़े हुए हैं, और ये वनों कुरुक्षेत्र की पहचान का एक महत्वपूर्ण हिस्सा रहे हैं। अब इन वनों के स्थान पर तीर्थों के आसपास उपवन बनाने की योजना पर चर्चा हो रही है।


प्राचीन ऋषि मुनियों का आश्रम

कुरुक्षेत्र विकास बोर्ड के अनुसार, कुरुक्षेत्र, कैथल, करनाल, जींद और पानीपत की 48 कोस भूमि में प्राचीन ऋषि मुनियों के आश्रम स्थित थे। कई ऋषियों ने यहीं पर ग्रंथों की रचना की। कुरुक्षेत्र के चारों ओर चार यक्षों का उल्लेख मिलता है: बेहरजख, अरंतुक यक्ष, रंतुक यक्ष और कपिल यक्ष। भारतीय उपमहाद्वीप में यक्षों की पूजा अनादि काल से होती आ रही है।


प्राचीन वनों की सूची

प्राचीन समय में कुरुक्षेत्र 48 कोस के वन


आदिति वन : अभिमन्युपुर जिला कुरुक्षेत्र, काम्यक वन - कमौदा जिला कुरुक्षेत्र


शीत वन : सीवन जिला कैथल, फलकी वन - फरल जिला कैथल


सूर्य वन : सजूमा जिला कैथल


मधुबन : मोहना जिला कैथल


ब्यास वन : बस्तली जिला करनाल


पौराणिक साहित्यों में कुरुक्षेत्र का महत्व

पौराणिक साहित्यों में है कुरुक्षेत्र का वर्णन


कुरुक्षेत्र विकास बोर्ड के सदस्य अशोक रोशा के अनुसार, कुरुक्षेत्र की महिमा का वर्णन पौराणिक साहित्यों में मिलता है। यह भूमि सात वनों से घिरी हुई थी, और इसकी 48 कोस की परिक्रमा बीड़ पिपली रंतुक यक्ष से आरंभ होती है। इस तीर्थ का जीर्णोद्धार भी किया गया है।


उपवन विकास की आवश्यकता

उपवन विकसित करने की जरूरत


श्रीकृष्ण संग्रहालय के प्रभारी बलवान सिंह का कहना है कि भले ही प्राचीन वन समाप्त हो चुके हैं, लेकिन उन वनों की संस्कृति को पुनर्जीवित करने के लिए संबंधित स्थानों और तीर्थ स्थलों के आसपास उपवन विकसित किए जा सकते हैं। इससे कुरुक्षेत्र 48 कोस को एक नया और विशेष स्वरूप प्राप्त होगा।