×

क्या हम समाज में बाँझपन की ओर बढ़ रहे हैं?

क्या हिंदू समाज में बाँझपन की समस्या बढ़ रही है? हालिया आंकड़ों के अनुसार, प्रजनन दर में गिरावट और लिंग अनुपात में असंतुलन चिंता का विषय बन गया है। एक गायनकोलॉजिस्ट के अनुसार, लड़कियों की संख्या बढ़ रही है जबकि लड़कों की कमी हो रही है। यह स्थिति केवल जन्म दर का मुद्दा नहीं है, बल्कि सामाजिक रिश्तों और मेहनत के प्रति दृष्टिकोण का भी परिणाम है। जानें इस गंभीर मुद्दे पर और क्या चिंताएँ हैं।
 

समाज में बाँझपन का संकट

क्या हम वास्तव में बाँझ हो रहे हैं? यह सवाल गंभीर है। बाँझपन का अर्थ केवल संतान उत्पन्न करने में असमर्थता नहीं है, बल्कि यह जीवन की उस स्थिति को भी दर्शाता है जहाँ कुछ नया नहीं रचा जा रहा। हम हिंदू समाज की बात कर रहे हैं, जो अपने भविष्य के लिए चिंतित है। हाल ही में एक गायनकोलॉजिस्ट ने बताया कि हिंदू आबादी में जन्म दर घट रही है और लिंग अनुपात भी बिगड़ रहा है। लड़कियों की संख्या बढ़ रही है जबकि लड़कों की संख्या कम हो रही है।


एक अनुभवी महिला डॉक्टर ने कहा कि जल्द ही लड़कियों को लड़के नहीं मिलेंगे। यह स्थिति चिंताजनक है, लेकिन इसे समझने के लिए हमें मुस्लिम आबादी के आंकड़ों को अलग से देखना होगा। यदि हम हिंदू आबादी की प्रजनन दर को देखें, तो यह स्पष्ट है कि हम असंतुलित हो रहे हैं।


यह केवल जन्म दर का मुद्दा नहीं है। मुस्लिम समाज में लड़के-लड़कियों की शादी में कोई समस्या नहीं है, जबकि हिंदू समाज में यह समस्या बढ़ती जा रही है। हिंदू युवा सरकारी नौकरियों और आरक्षण की तलाश में भटक रहे हैं, जबकि मुस्लिम युवा मेहनत कर रहे हैं।


दिल्ली में काम करने वाले मजदूरों में मुस्लिम समुदाय का दबदबा है। वहीं, पश्चिमी उत्तर प्रदेश के जाट खेतिहर भी मुस्लिम युवाओं को खेतों में काम करते देख रहे हैं। यह दर्शाता है कि मुस्लिम समुदाय मेहनत और काम के प्रति समर्पित है।


अमेरिका और जापान जैसे देशों में भी एकाकी जीवन की चिंता बढ़ रही है। वैश्विक पत्रिका 'दि इकॉनोमिस्ट' में इस पर कई लेख प्रकाशित हुए हैं। नई पीढ़ी अब एआई और चैटबॉट्स के माध्यम से संबंध बना रही है, जिससे पारंपरिक रिश्तों में कमी आ रही है।


भारत में भी युवा आबादी सोशल मीडिया और ऐप्स के प्रभाव में है। यह स्थिति चिंताजनक है, क्योंकि यह सामाजिक रिश्तों को कमजोर कर रही है।


इसलिए, हमें यह समझने की आवश्यकता है कि हम किस दिशा में बढ़ रहे हैं। क्या हम वास्तव में बाँझ हो रहे हैं?