गुरु तेग बहादुर: बलिदान और अंतिम संस्कार की कहानी
गुरु तेग बहादुर का ऐतिहासिक संदर्भ
गुरु तेग बहादुर के अंतिम संस्कार स्थल: दिल्ली में उस समय क्रूर मुगल सम्राट औरंगज़ेब का शासन था। उसकी नीतियों ने हिंदुओं, विशेषकर कश्मीरी पंडितों के जीवन को कठिन बना दिया था। जबरन धर्म परिवर्तन कराया जाता था, और जो लोग मना करते थे, उन्हें मौत के घाट उतार दिया जाता था।
इन अत्याचारों से त्रस्त लगभग 500 कश्मीरी पंडित पंडित कृपा राम के नेतृत्व में आनंदपुर पहुंचे और गुरु तेग बहादुर से सहायता की प्रार्थना की। कहा जाता है कि अमरनाथ में भगवान शिव से प्रार्थना करने के बाद एक पंडित को स्वप्न में संकेत मिला कि नवें गुरु ही उनके रक्षक होंगे। इसके बाद जो हुआ, उसने गुरु तेग बहादुर के त्याग को अमर कर दिया।
गुरु तेग बहादुर का प्रारंभिक जीवन
गुरु तेग बहादुर का जन्म 1 अप्रैल 1621 को अमृतसर में हुआ। उनका बचपन का नाम त्याग मल था। वे छठे सिख गुरु गुरु हरगोविंद के सबसे छोटे पुत्र थे, जो सोढ़ी वंश के खत्री जाति से थे। उनके भाई-बहनों में बाबा गुरदित्ता, सूरज मल, अनी राय, अटल राय और बहन बीबी वीरो शामिल थे।
करतारपुर की लड़ाई में अद्भुत साहस दिखाने पर उनके पिता गुरु हरगोविंद ने त्याग मल को नया नाम दिया — तेग बहादुर, जिसका अर्थ है 'तलवार का धनी'।
सिख परंपरा के अनुसार, उन्हें छोटी उम्र से ही तीरंदाजी, घुड़सवारी, वेद, उपनिषद और पुराणों की शिक्षा दी गई। 3 फरवरी 1632 को उनका विवाह हुआ। गुरु हरगोविंद के निधन के बाद, तेग बहादुर कुछ समय बकाला में अपनी मां और पत्नी के साथ रहे।
जब आठवें गुरु गुरु हर किशन चेचक से बीमार पड़े, तो उन्होंने अपने उत्तराधिकारी के बारे में केवल इतना कहा — 'बाबा बकाला'।
गुरु तेग बहादुर का चयन
गुरु हर किशन के संकेत के बाद कई लोग स्वयं को गुरु घोषित करते हुए बकाला पहुंचे। इसी समय अमीर व्यापारी माखन शाह लबाना भी अपनी मन्नत पूरी करने 500 स्वर्ण मुद्राएं चढ़ाने आया।
वह हर स्वयंभू गुरु को मात्र दो सिक्के देता रहा, ताकि असली गुरु का पता लगे। कोई भी उसे नहीं पहचान पाया, लेकिन जब वह तेग बहादुर के पास पहुंचा, तो उन्होंने कहा —
'माखन शाह, तुम्हारा वादा पांच सौ स्वर्ण मुद्राओं का था।'
तभी माखन शाह छत पर चढ़कर जोर से चिल्लाया — 'गुरु लाधो रे!'
इसके बाद अगस्त 1664 में संगत ने तेग बहादुर को 9वें गुरु के रूप में स्वीकार किया।
कश्मीरी पंडितों की सहायता के लिए गुरु का प्रयास
कश्मीरी पंडितों की गुहार सुनकर गुरु तेग बहादुर तुरंत यात्रा पर निकले, लेकिन रोपड़ में उन्हें गिरफ्तार कर सरहिंद की जेल में डाल दिया गया। चार महीने बाद उन्हें दिल्ली लाया गया, जहां औरंगज़ेब ने धार्मिक चमत्कार दिखाने या इस्लाम स्वीकार करने का आदेश दिया।
गुरु के इंकार करने पर उनके तीन साथियों — भाई मति दास, भाई दयाल दास, भाई सती दास — को अमानवीय तरीके से शहीद किया गया।
आखिर में, 1675 में चांदनी चौक में गुरु तेग बहादुर का सिर धड़ से अलग कर दिया गया। धर्म की रक्षा के लिए उन्होंने सर्वोच्च बलिदान दिया।
गुरु का अंतिम संस्कार
गुरु तेग बहादुर के शरीर रहित शीश को भाई जैता (बाद में भाई जीवन सिंह) दिल्ली से चोरी-छिपे आनंदपुर साहिब ले आए।
वहीं पर गुरु का अंतिम संस्कार किया गया और आज इसी स्थान पर शीश गंज गुरुद्वारा, आनंदपुर साहिब स्थित है।
दिल्ली के चांदनी चौक में जहां शहादत हुई थी, वहां भी शीश गंज गुरुद्वारा दिल्ली है।
गुरु के धड़ को भाई लखी शाह बंजारा और उनके पुत्र ने रात के अंधेरे में अपने घर ले जाकर छिपाया।
औरंगज़ेब के आतंक के कारण खुलकर संस्कार संभव नहीं था, इसलिए उन्होंने घर में आग लगाकर गुरु के धड़ का अंतिम संस्कार किया।
आज वहीं रकाब गंज गुरुद्वारा, नई दिल्ली में स्थित है—जहां कभी रकाब गंज गांव हुआ करता था।