डिजिटल लोकतंत्र की चुनौतियाँ: तकनीकी कंपनियों का नियंत्रण
डिजिटल मंचों पर आजादी का संकट
इंटरनेट को पहले दुनिया का सबसे बड़ा लोकतांत्रिक मंच माना जाता था, जहाँ हर कोई बिना किसी डर के अपनी बात रख सकता था। लेकिन अब यह धारणा बदल चुकी है। अब यह सवाल उठता है कि कौन बोलेगा और किसकी आवाज सुनी जाएगी। यह निर्णय न तो न्यायालय करते हैं और न ही संसद, बल्कि कुछ तकनीकी कंपनियों के बंद कमरों में चलने वाले कोड करते हैं। भारत जैसे विशाल डिजिटल समाज में यह संघर्ष और भी गंभीर हो गया है।
बोलने की आजादी का नया अर्थ
बोलने की स्वतंत्रता अब केवल पोस्ट डालने तक सीमित नहीं रह गई है। पोस्ट तो रहती हैं, लेकिन कोई उन्हें देखता नहीं। वीडियो अपलोड होते हैं, लेकिन वे सुझावों में नहीं आते। इसे शैडो-बैनिंग कहा जाता है, जहाँ बिना किसी सूचना या अपील के आपकी आवाज को दबा दिया जाता है। यह एक नई प्रकार की सेंसरशिप है, जो खामोश है लेकिन खतरनाक।
विचारों का चयन और मॉडरेशन
पहले मॉडरेशन का अर्थ केवल स्पैम और हिंसा को रोकना था। अब यह तय करता है कि कौन सा विचार अधिक लोगों तक पहुंचेगा। एक छोटा सा नीतिगत बदलाव रातोंरात लाखों क्रिएटर्स की आय को प्रभावित कर सकता है। इसमें कोई पारदर्शिता या जवाबदेही नहीं है। उपयोगकर्ताओं को यह भी नहीं पता चलता कि उनका फीड कितना इंजीनियर्ड है।
गुस्से का व्यापार
प्लेटफार्मों को शांति से नहीं, बल्कि विवाद से लाभ होता है। जितना अधिक गुस्सा, उतना ही अधिक एंगेजमेंट और कमाई। इसलिए एल्गोरिदम झगड़ों को बढ़ावा देते हैं और अफवाहें फैलाते हैं। सरकारें, राजनीतिक दल और लॉबियां सभी इसका लाभ उठाते हैं। हर व्यक्ति को उसकी पसंद का अलग राजनीतिक सच प्रस्तुत किया जाता है, जिससे एक ही देश में कई सच्चाइयाँ बन जाती हैं।
भारत की विशेष स्थिति
भारत में अंतरपार्टी नियमों ने प्लेटफार्मों को 36 घंटे के भीतर सामग्री हटाने के लिए बाध्य किया है। डेटा सुरक्षा कानून बना, लेकिन सरकार को छूट मिली है। डीपफेक चुनावों में समस्याएँ पैदा कर रहे हैं, लेकिन अभी तक कोई ठोस कानून नहीं है। न्यायालय हर हफ्ते नए मामलों की सुनवाई कर रहे हैं। भारत जो रास्ता चुनेगा, दुनिया उसे देखेगी।
नए सामाजिक अनुबंध की आवश्यकता
अब लोकतंत्र की असली परीक्षा यह है कि कैसे निजी कंपनियों के हाथों से जनता का मंच वापस लिया जाए। इसके लिए आवश्यक है कि एल्गोरिदम में पारदर्शिता हो, प्लेटफार्मों की जवाबदेही सुनिश्चित की जाए और नागरिकों को सशक्त बनाया जाए। जब तक ऐसा नहीं होगा, सच नहीं, बल्कि कोड यह तय करेगा कि हम क्या जानें और क्या मानें।
लेखक का परिचय
हिमांशु शेखर, ग्रुप एडिटर, दैनिक भास्कर (यूपी, उत्तराखंड)