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दिव्यांगजन दिवस: समावेशी समाज की दिशा में कदम

विश्व दिव्यांगजन दिवस पर, यह लेख भारत में दिव्यांगता के प्रति बदलती सोच और अधिकारों की दिशा में उठाए गए कदमों पर प्रकाश डालता है। यह बताता है कि कैसे शिक्षा और खेल दिव्यांगजन के सशक्तिकरण में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। लेख में यह भी चर्चा की गई है कि समावेशी समाज की दिशा में और क्या कदम उठाए जाने की आवश्यकता है।
 

दिव्यांगजन दिवस का महत्व


कार्तिकेय शर्मा, सांसद, राज्यसभा, नई दिल्ली। विश्व दिव्यांगजन दिवस केवल एक तिथि नहीं है, बल्कि यह इस बात का प्रतीक है कि किसी भी देश की प्रगति उसकी अर्थव्यवस्था से अधिक इस बात पर निर्भर करती है कि वह अपने सभी नागरिकों, विशेषकर उन लोगों की गरिमा और अवसरों की रक्षा कैसे करता है, जिन्हें अक्सर नजरअंदाज किया जाता है। भारत में दिव्यांगता के प्रति सोच में पिछले कुछ वर्षों में महत्वपूर्ण बदलाव आया है। अब यह विषय दया और सहानुभूति का नहीं, बल्कि अधिकार, समानता और आत्मसम्मान का है। यह बदलाव एक ऐसे समाज की ओर इशारा करता है जो दिव्यांगजन को सीमित क्षमताओं वाले व्यक्तियों के रूप में नहीं, बल्कि पूर्ण नागरिक और सक्रिय योगदानकर्ता के रूप में देखता है।


अधिकार-आधारित दृष्टिकोण

दिव्यांगता को मानव विविधता का एक हिस्सा मानने वाला अधिकार-आधारित दृष्टिकोण यह मानता है कि समाज का कर्तव्य है कि वह ऐसा वातावरण बनाए जहाँ हर व्यक्ति सुगमता, सुरक्षा और सम्मान के साथ जी सके। यह दृष्टिकोण दिव्यांगजन अधिकार अधिनियम, 2016 (आरपीडब्ल्यूडी एक्ट) में स्पष्ट रूप से व्यक्त होता है, जो समानता, सहभागिता और सुगमता को राष्ट्र का कर्तव्य बनाता है। शिक्षा और खेल ऐसे क्षेत्र हैं जहाँ समावेशन सबसे प्रभावी रूप से सशक्तिकरण में बदलता है।


शिक्षा का महत्व

शिक्षा किसी भी बच्चे की क्षमता का सबसे मजबूत आधार है। दिव्यांगजन के लिए शिक्षा को दया या समर्थन के रूप में नहीं, बल्कि एक अधिकार के रूप में देखा जाना चाहिए। आंकड़े बताते हैं कि स्थिति चिंताजनक है। 2011 की जनगणना के अनुसार, 5 से 19 वर्ष के दिव्यांग बच्चों में से केवल 61 प्रतिशत ही किसी शिक्षण संस्थान तक पहुंच पाते हैं, जबकि 27 प्रतिशत बच्चों ने कभी स्कूल में कदम नहीं रखा। इसका मतलब है कि लगभग हर चौथा दिव्यांग बच्चा शिक्षा के अधिकार से पूरी तरह वंचित है।


खेल और आत्मविश्वास

जैसे शिक्षा क्षमता बनाती है, वैसे ही खेल उस क्षमता को पहचान और आत्मविश्वास देता है। पैरा-खेल केवल शारीरिक गतिविधि नहीं, बल्कि नेतृत्व, आत्मसम्मान और सामाजिक स्वीकृति का माध्यम हैं। जब कोई दिव्यांग खिलाड़ी मैदान पर उतरता है, वह समाज के पूर्वाग्रहों को चुनौती देता है। भारत के पैरा-एथलीटों ने यह संदेश विश्व स्तर पर स्थापित किया है।


समावेशी भविष्य की दिशा में कदम

भारत ने समावेशी भविष्य की दिशा में महत्वपूर्ण कदम उठाए हैं, लेकिन अब इन प्रयासों को और तेज और व्यापक बनाना आवश्यक है। हमें ऐसे स्कूल बनाने होंगे जहाँ कोई भौतिक या सामाजिक बाधा न हो; ऐसे खेल मैदान जहाँ हर खिलाड़ी गरिमा और आत्मविश्वास के साथ उतर सके। यही वह आधार है, जिस पर सच्चा समावेशन खड़ा होता है।