धर्म और राष्ट्रवाद का संगम: त्योहारों का नया अर्थ
धार्मिक अनुष्ठानों का बदलता स्वरूप
आज का समय धार्मिक अनुष्ठानों और त्योहारों से भरा हुआ है, जो अब केवल खुशी का प्रतीक नहीं रह गए हैं, बल्कि अपनी पहचान को प्रदर्शित करने का माध्यम बन गए हैं। राष्ट्रवाद ने धर्म को एक नई परत में लपेट दिया है, जिससे दोनों के बीच का अंतर समझना मुश्किल हो गया है।
दिल्ली की पुतला मंडी का दृश्य
हाल ही में, मैंने दिल्ली के तिलक नगर-टिटरपुर में पुतलों की मंडी में इस संगम को देखा। यहाँ रावण, मेघनाद और कुंभकर्ण के पुतले सड़क किनारे खड़े थे। ये पुतले विभिन्न आकारों में थे, जिनमें विशालकाय से लेकर छोटे गुड्डे शामिल थे। उनकी चमकीली आँखें और मुस्कुराते चेहरे एक पौराणिक मेले का अहसास कराते थे। लेकिन मेरी नज़र उन पुतलों की मूँछों पर ठहर गई, जिन पर 'ऑपरेशन सिंदूर कामयाब' लिखा था। इस तरह दशहरा अब राष्ट्रवाद का प्रतीक बन चुका है।
सामाजिक मूड और त्योहारों का नया अर्थ
इन पुतलों को बनाने वाले कारीगरों ने सरकार से कोई आदेश नहीं लिया था, लेकिन एक कारीगर ने कहा, 'देश का मूड ऑपरेशन सिंदूर में चल रहा है।' यह सच है कि युद्ध के इस समय में देश का मूड इसी दिशा में है। जब सरकार ने एशिया कप में भारत-पाकिस्तान मैच को हरी झंडी दी, तो सड़क पर बहिष्कार का मूड था। अब त्योहारों में भी यह मूड देखने को मिल रहा है।
धर्म और राष्ट्रवाद का घालमेल
धर्म हमेशा प्रतीकों की भाषा देता रहा है, लेकिन आज ये प्रतीक जानबूझकर राष्ट्रवाद की पटकथा में शामिल किए जा रहे हैं। यह एक सोची-समझी प्रक्रिया है, जिसमें खतरा है। जब राजनीति राष्ट्रवाद में मिलती है, तब भी नियंत्रण राज्य के हाथ में रहता है, लेकिन जब राष्ट्रवाद धर्म में घुल जाता है, तो यह अनियंत्रित हो जाता है।
इतिहास की गूंज
इतिहास बताता है कि भाषा, राष्ट्रवाद और धर्म समाज को आकार देने की शक्तियाँ रही हैं। धर्म अपने सर्वोत्तम रूप में एकता और आशा ला सकता है, लेकिन जब इसे राष्ट्रवाद की सेवा में झोंका जाता है, तो यह समाज को स्थायी वर्तमान में जकड़ देता है।
क्या हम भी उसी राह पर हैं?
भारत अब अपने पड़ोसी देशों की तरह होता जा रहा है। राम मंदिर का भूमिपूजन राष्ट्रवाद से इस तरह जुड़ा कि जिन छतों पर भगवा झंडा नहीं लहराया, वे 'राष्ट्रविरोधी' कहलाए। कोविड के दौरान, दीया न जलाना अब 'देशद्रोह' बन गया। नवरात्रि अब केवल व्रत और पूजा का समय नहीं रह गया, बल्कि आदेशों का समय बन गया है।
सोशल मीडिया का प्रभाव
डिजिटल दुनिया में भी यही स्क्रिप्ट चल रही है। सोशल मीडिया पर नवरात्रि के पोस्टों की बाढ़ आई हुई है। यह एक स्तर पर सुखद है, लेकिन असहजता भी है। क्यों आस्था को आज हैशटैग और सर्टिफिकेट की आवश्यकता है? यह श्रद्धा कम, घोषणा अधिक लगती है।
धर्म का नया चेहरा
आज धर्म विश्वास से अधिक, एक मानव-निर्मित प्रोग्राम बन गया है। जो इस स्क्रिप्ट का पालन नहीं करते, उन्हें 'भारत विरोधी' करार दिया जाता है। महात्मा गांधी ने चेताया था कि जब धर्म राजनीति में खींचा जाता है, तो वह नैतिक शक्ति खो देता है।
निष्कर्ष
भारत की विडंबना यही है कि हमने केवल एक पार्टी को सत्ता नहीं दी, बल्कि ऐसे लोगों को ऊँचाई दी है जिन्होंने सार्वजनिक जीवन से सभी तत्व निकाल दिए हैं। इसलिए धर्म को अब फिर से निजी क्षेत्र में लौटना चाहिए। आज का रावण पौराणिक असुर की तरह नहीं जलता, बल्कि दुश्मन की तरह जलता है।