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पाकिस्तान में सेना का नियंत्रण: आसिफ अली जरदारी की कुर्सी खतरे में

पाकिस्तान में एक बार फिर सेना का नियंत्रण बढ़ता दिख रहा है, जिससे राष्ट्रपति आसिफ अली जरदारी की कुर्सी खतरे में है। जनरल असीम मुनीर की योजना है कि वे खुद राष्ट्रपति बनें और इसके लिए संविधान में बड़े बदलाव की तैयारी की जा रही है। इस राजनीतिक संकट की शुरुआत बिलावल भुट्टो जरदारी द्वारा आर्मी चीफ की आलोचना से हुई। क्या शहबाज शरीफ की कुर्सी भी जाएगी? क्या जुलाई 2025 में फिर से तख्तापलट होगा? जानें इस महत्वपूर्ण राजनीतिक घटनाक्रम के बारे में।
 

पाकिस्तान में सैन्य नियंत्रण की वापसी

पाकिस्तान में सेना का नियंत्रण: एक बार फिर पाकिस्तान सेना के अधीन आता दिख रहा है। मौजूदा राष्ट्रपति आसिफ अली जरदारी की स्थिति संकट में है। रिपोर्ट्स के अनुसार, सेना प्रमुख जनरल असीम मुनीर उन्हें पद से हटाने की योजना बना रहे हैं और खुद राष्ट्रपति बनने का इरादा रखते हैं। सूत्रों का कहना है कि इसके लिए संविधान में महत्वपूर्ण संशोधनों की रूपरेखा तैयार की जा चुकी है। यदि यह सच साबित होता है, तो पाकिस्तान में एक और सैन्य तख्तापलट का इतिहास लिखा जाएगा.


सियासी संकट की शुरुआत

इस राजनीतिक संकट की शुरुआत तब हुई जब बिलावल भुट्टो जरदारी ने हाल ही में आर्मी चीफ असीम मुनीर की आलोचना की। यह बयान जरदारी परिवार की अंदरूनी चिंता को दर्शाता है, जो सेना के दबाव में है। विशेषज्ञों का मानना है कि सेना लंबे समय से जरदारी के खिलाफ रणनीति बना रही थी, जो अब स्पष्ट हो रही है.


क्या शहबाज शरीफ की भी बारी आएगी?

क्या शहबाज शरीफ की कुर्सी भी जाएगी?

रिपोर्ट्स के अनुसार, जनरल असीम मुनीर केवल राष्ट्रपति पद तक सीमित नहीं रहेंगे, बल्कि वे प्रधानमंत्री शहबाज शरीफ को भी हटाकर सत्ता पर पूरी तरह से नियंत्रण चाहते हैं। पाकिस्तानी पत्रकार सैयद की रिपोर्ट के अनुसार, यह देखना महत्वपूर्ण होगा कि क्या जरदारी स्वेच्छा से इस्तीफा देंगे या उन्हें बलात्कारी तरीके से हटाया जाएगा.


क्या जुलाई में फिर से होगा तख्तापलट?

जुलाई में फिर इतिहास दोहराएगा खुद को?

पाकिस्तान में तख्तापलट की संभावनाओं के बीच सोशल मीडिया पर जुलाई महीने की चर्चा तेज हो गई है। लोग कह रहे हैं कि जुलाई 1977 में जिया उल हक ने भी सत्ता पर कब्जा किया था। क्या 2025 का जुलाई फिर वही कहानी दोहराएगा? राजनीतिक विश्लेषकों का कहना है कि यदि ऐसा होता है, तो पाकिस्तान में लोकतंत्र की नींव कमजोर होगी और देश एक बार फिर सैन्य तानाशाही की ओर लौट जाएगा.