बिहार में मतदाता सूची के पुनरीक्षण में 7.24 करोड़ ने किया फॉर्म जमा
बिहार में मतदाता सूची का विशेष पुनरीक्षण
नई दिल्ली। बिहार में मतदाता सूची के विशेष गहन पुनरीक्षण (SIR) के पहले चरण में अब तक 7.24 करोड़ मतदाताओं ने गणना फॉर्म जमा किए हैं, जो कुल सूची का 91.69 प्रतिशत है। निर्वाचन आयोग ने रविवार को यह जानकारी साझा की। आयोग ने स्पष्ट किया कि वास्तविक मतदाताओं को एक अगस्त से एक सितंबर के बीच दावे-आपत्तियों की अवधि में फिर से जोड़ा जा सकेगा। जिन मतदाताओं के नाम एक से अधिक स्थानों पर दर्ज हैं, वहां केवल एक प्रविष्टि मान्य होगी।
सुप्रीम कोर्ट में सुनवाई
इस प्रक्रिया पर उठाए गए सवालों पर अब सोमवार, 28 जुलाई को सुप्रीम कोर्ट में सुनवाई होने वाली है। न्यायमूर्ति सूर्यकांत और न्यायमूर्ति जॉयमाल्या बागची की पीठ इस मामले पर विचार करेगी। निर्वाचन आयोग ने एसआईआर के 24 जून के आदेश को सही ठहराते हुए कहा है कि इसका उद्देश्य अपात्र मतदाताओं के नाम हटाकर चुनाव की शुचिता बनाए रखना है। आयोग ने यह भी बताया कि सभी प्रमुख राजनीतिक दल इस प्रक्रिया में शामिल थे, और 1.5 लाख से अधिक बीएलए (BLA) नियुक्त किए गए थे।
राजनीतिक दलों का विरोध
हालांकि, अब वही दल इस प्रक्रिया का विरोध कर रहे हैं। आयोग ने अपने हलफनामे में आरोपों को खारिज करते हुए कहा कि एसआईआर स्वतंत्र और निष्पक्ष चुनाव की गारंटी देने के लिए आवश्यक है। वहीं, याचिकाकर्ताओं में शामिल नागरिक संगठन एडीआर (ADR) ने कहा है कि एसआईआर आदेश से मतदाताओं को मनमाने ढंग से बाहर करने का खतरा बढ़ गया है। उनके अनुसार, ईआरओ (ERO) को दिए गए व्यापक विवेकाधिकार के चलते लाखों लोगों के मताधिकार पर संकट है।
पहचान दस्तावेजों पर सवाल
एडीआर ने यह भी सवाल उठाया कि आधार और राशन कार्ड को पहचान दस्तावेज के रूप में क्यों नहीं स्वीकार किया गया। आयोग ने इस पर कोई स्पष्ट कारण नहीं दिया। राजद (RJD) के राज्यसभा सांसद मनोज झा ने, अधिवक्ता फौजिया शकील के माध्यम से दाखिल अपने प्रत्युत्तर में, कहा कि बीएलओ (BLO) कई स्थानों पर मतदाताओं के पास गए ही नहीं और कहीं-कहीं फर्जी हस्ताक्षर कर फॉर्म अपलोड कर दिए गए।
सुप्रीम कोर्ट की पिछली सुनवाई
सुप्रीम कोर्ट की पिछली सुनवाई में न्यायमूर्ति सुधांशु धूलिया और जॉयमाल्या बागची की पीठ ने कहा था कि आधार, मतदाता पहचान पत्र और राशन कार्ड को दस्तावेज़ के रूप में स्वीकार किया जा सकता है। अब अदालत के समक्ष असली प्रश्न यह है कि क्या यह प्रक्रिया चुनाव की शुचिता को सुनिश्चित करती है या लाखों मतदाताओं को लोकतांत्रिक प्रक्रिया से बाहर करने का ज़रिया बनती है।