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भारत का 2025: एक चिंतनशील विश्लेषण

साल 2025 भारत के लिए कई महत्वपूर्ण घटनाओं का गवाह बना, जिसमें राजनीतिक, सामाजिक और आर्थिक चुनौतियाँ शामिल थीं। इस वर्ष ने भारत की वैश्विक पहचान को प्रभावित किया और नागरिक चेतना में कमी का संकेत दिया। क्या भारत अपनी खोई हुई पहचान को पुनः प्राप्त कर सकेगा? जानें इस विश्लेषण में।
 

भारत का नुकसान और वैश्विक परिप्रेक्ष्य

साल 2025 में भारत ने कई महत्वपूर्ण चीजें खोईं। इस वर्ष ने न केवल भारत को, बल्कि पूरी दुनिया को भी नुकसान पहुंचाया। भारत का नुकसान विशेष रूप से उसकी राष्ट्रीय पहचान और नैतिकता में कमी के रूप में देखा गया। अमेरिका में डोनाल्ड ट्रंप के नेतृत्व में जो अस्थिरता थी, वही भारत में भी देखने को मिली। मई में ऑपरेशन सिंदूर के दौरान भारत में जो हलचल थी, उससे न तो वैश्विक राजनीति पर कोई असर पड़ा और न ही भारत की शक्ति का रुतबा बना। इस समय पाकिस्तान को अंतरराष्ट्रीय स्तर पर मान्यता मिलने लगी थी।


दक्षिण एशिया में भारत की स्थिति

दक्षिण एशिया में बांग्लादेश और नेपाल में जेनरेशन ज़ेड के सत्ता परिवर्तन ने भारत को पड़ोस में अकेला कर दिया। 21वीं सदी के प्रारंभ से भारत की स्वाभाविक नेतृत्व की स्थिति अब लगभग समाप्त हो चुकी है। बांग्लादेश में हाल की घटनाओं से यह स्पष्ट है कि 2026 में वहां कट्टरपंथी और भारत विरोधी सरकार का गठन होगा।


भारत का वैश्विक प्रभाव

21वीं सदी के प्रारंभ में भारत-अमेरिकी परमाणु समझौते के बाद भारत का वैश्विक प्रभाव बढ़ा था, लेकिन अब यह या तो समाप्त हो चुका है या फिर केवल एक बाजार के रूप में सीमित रह गया है। 2025 में भारत की बाजार हैसियत और उपभोग की स्थिति बनी रही, लेकिन यह गर्व का विषय कम और पराश्रित अर्थव्यवस्था का संकेत अधिक है।


राजनीतिक परिदृश्य

साल भर भारत अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप के गर्म-ठंडे रवैये से प्रभावित रहा। प्रधानमंत्री मोदी के बयानों और भारत के नैरेटिव ने ट्रंप के कारण भारत को घेर लिया। पहलगांव में आतंकी हमले और ऑपरेशन सिंदूर के बाद की प्रतिक्रियाओं में भारत ने एक ऐसी चुप्पी धारण की, जिसे दुनिया ने कमजोरी के रूप में देखा।


सामाजिक और आर्थिक चिंताएँ

2025 में भारत में सत्ता अधिक मुखर और स्पष्ट हुई, लेकिन नागरिक चेतना धीरे-धीरे पीछे छूटती गई। यह कोई अचानक गिरावट नहीं थी, बल्कि वर्षों से बन रही प्रवृत्तियों का परिणाम थी। विकास के दावों के पीछे अस्थिर नौकरियों और उपभोग आधारित विस्तार की सीमाएँ स्पष्ट थीं।


संस्कृति और भाषा का संकट

समाज ने इन दबावों को अपने तरीके से आत्मसात किया। असहमति को शत्रुता समझने की प्रवृत्ति अब सामान्य हो गई है। हिंदी और अन्य भारतीय भाषाओं में मौलिक सृजन का साहस कम होता गया है।


वैश्विक अनिश्चितता

वैश्विक स्तर पर 2025 अनिश्चितता का वर्ष रहा। भारत इस बदलते परिदृश्य में अधिक उपस्थित था, लेकिन उसकी भूमिका सावधानी और प्रतीक्षा से परिभाषित थी।


भविष्य की चुनौतियाँ

जैसे-जैसे यह वर्ष पीछे हटता है, सवाल जानबूझकर खुले छोड़े गए हैं। क्या नागरिक दर्शक-भाव से लौटकर भागीदारी की ओर बढ़ सकते हैं? 2026 इन सवालों के उत्तर नहीं देगा, बल्कि यह परखेगा कि क्या ये सवाल अब भी पूछे जा रहे हैं।