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भारत के चुनावों में बदलाव: मुद्दों का नया स्वरूप

भारत के चुनावी परिदृश्य में महत्वपूर्ण बदलाव आ रहे हैं। नई पीढ़ी के नेताओं और बदलते मुद्दों के साथ, चुनाव अब केवल पारंपरिक मुद्दों पर निर्भर नहीं हैं। महंगाई, बेरोजगारी और भ्रष्टाचार जैसे मुद्दे अब भी महत्वपूर्ण हैं, लेकिन मीडिया और सोशल मीडिया के प्रभाव ने मतदान व्यवहार को नया आकार दिया है। जानें कैसे ये बदलाव चुनावी विमर्श को प्रभावित कर रहे हैं और कैसे लोग अब बड़े मुद्दों पर वोट दे रहे हैं।
 

चुनावों में गुणात्मक परिवर्तन

भारत में चुनावी परिदृश्य में महत्वपूर्ण बदलाव देखने को मिल रहे हैं। चुनावी रणनीतियों में बदलाव आया है, और नई पीढ़ी के नेता सामने आ रहे हैं। इसके साथ ही, चुनावी मुद्दे भी तेजी से विकसित हो रहे हैं। हालांकि, जाति और धर्म का प्रभाव अभी भी बना हुआ है। पहले चुनाव केवल बिजली, सड़क और पानी जैसे मुद्दों पर केंद्रित होते थे, लेकिन अब यह परिदृश्य बदल चुका है।


जैसे पहले बिहार के एक नेता ने सड़क निर्माण के लिए एक अभिनेत्री के गालों की तुलना की थी, वैसे ही आज केंद्र सरकार के मंत्री भी अमेरिका की तरह भारत की सड़कों का वादा करते हैं। लेकिन अब सड़कें चुनावी मुद्दा नहीं रह गई हैं। बिजली और जल आपूर्ति जैसे मुद्दे भी अब चुनावी विमर्श का हिस्सा नहीं हैं। ऐसा लगता है कि इन मुद्दों की अनुपस्थिति मतदान व्यवहार को प्रभावित कर सकती है, लेकिन इनकी उपलब्धता वोटों की संख्या में वृद्धि नहीं करती।


महंगाई और बेरोजगारी के मुद्दे

हालांकि, बेरोजगारी, महंगाई और भ्रष्टाचार जैसे मुद्दे अब भी चुनावों में महत्वपूर्ण हैं। 2014 में नरेंद्र मोदी ने इन्हीं मुद्दों को उठाकर यूपीए सरकार को चुनौती दी थी। लेकिन अब केवल इन मुद्दों के आधार पर चुनाव हारने के उदाहरण कम होते जा रहे हैं। पहले विपक्षी पार्टियां इन मुद्दों पर लगातार संघर्ष करती थीं, लेकिन अब महंगाई या बेरोजगारी के खिलाफ आंदोलन कम होते जा रहे हैं।


युवाओं द्वारा नौकरियों और प्रतियोगिता परीक्षाओं में गड़बड़ी के खिलाफ आंदोलन होते हैं, लेकिन यह सच है कि ये युवा मतदान के समय अपनी समस्याओं को भूल जाते हैं। उनका मतदान व्यवहार मीडिया और सोशल मीडिया में बनाए गए नैरेटिव से प्रभावित होता है। वे रोजमर्रा की छोटी जरूरतों के लिए संघर्ष करते हैं, लेकिन मतदान बड़े मुद्दों पर करते हैं।


मीडिया का प्रभाव

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने लोगों को बड़ा सोचने के लिए प्रेरित किया है। अब लोग सोशल मीडिया के माध्यम से ज्ञान प्राप्त कर विदेश नीति पर वोट देते हैं। उन्हें बताया जाता है कि भारत की विदेश नीति अद्वितीय है। पिछले 11 वर्षों में इस नैरेटिव का प्रभाव बना रहा है। हालांकि, अब कुछ भ्रम उत्पन्न हो रहा है कि क्या अमेरिका द्वारा लगाए गए टैरिफ और एच-1बी वीजा की फीस बढ़ाने का निर्णय मोदी से पूछकर लिया गया था।


नोम चोमस्की की किताब 'द मैन्यूफैक्चरिंग कन्सेंट' की प्रक्रिया अब भारत की राजनीति में दोहराई जा रही है। मास मीडिया का उपयोग करके लोगों की सहमति बनाई जा रही है। इस तरह से लोग अपने जरूरी मुद्दों को भूलकर बनाए गए मुद्दों के आधार पर मतदान कर रहे हैं।


आर्थिक और सामरिक नीति का चुनावी विमर्श

यह केवल विदेश नीति का मामला नहीं है, बल्कि आर्थिक और सामरिक नीति भी चुनावी विमर्श का हिस्सा बन गई है। पहले कभी नहीं कहा गया था कि सरकार ने सेना को खुली छूट दी है। अब इस बात का प्रचार किया जा रहा है। जटिल आर्थिक मुद्दों को भी मास मीडिया के माध्यम से सरलता से समझाया जा रहा है।


हाल ही में जीएसटी की दरों में बदलाव का उदाहरण है। जीएसटी 2.0 का माहौल ऐसा बनाया गया है जैसे पहले कांग्रेस सरकार ने लोगों का शोषण किया हो और अब मोदी सरकार ने उन्हें मुक्ति दिलाई है। यह पिछले कुछ वर्षों में आए राजनीतिक बदलाव का संकेत है कि कैसे रोजमर्रा के मुद्दों के बजाय मीडिया द्वारा निर्मित नैरेटिव चुनावों को प्रभावित कर रहे हैं।