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भारत में स्त्री की पहचान: शरीर से परे एक नई सोच

इस लेख में भारत में स्त्री की पहचान और पितृसत्ता की गहरी सोच पर चर्चा की गई है। यह बताया गया है कि कैसे स्त्री को केवल एक भौतिक वस्तु के रूप में देखा जाता है और कैसे यह सोच उसके जीवन को प्रभावित करती है। लेख में विभिन्न धार्मिक ग्रंथों और परंपराओं का संदर्भ दिया गया है, जो स्त्री की स्थिति को दर्शाते हैं। आचार्य प्रशांत के विचारों के माध्यम से यह समझने की कोशिश की गई है कि स्त्री की पहचान केवल उसके शरीर से परे होनी चाहिए।
 

स्त्री की पहचान और समाज की सोच

भारत में जब भी स्त्री का जिक्र होता है, चर्चा अक्सर उसके शरीर पर केंद्रित हो जाती है। यह सामान्य लग सकता है, लेकिन यह एक गहरी समस्या को उजागर करता है। सार्वजनिक व्यक्तियों या धार्मिक नेताओं की टिप्पणियाँ विवाद पैदा कर देती हैं, लेकिन इसके पीछे की सोच सदियों पुरानी है। यह सोच स्त्री को केवल एक भौतिक वस्तु मानती है, जिसे किसी और के स्वामित्व में रखा जा सकता है।


सिंदूर और भूमि: पुरानी परंपराएँ

हाल ही में एक व्यक्ति ने कहा कि यदि स्त्री की मांग में सिंदूर नहीं है, तो उसे खाली समझा जाना चाहिए। यह दृष्टिकोण स्त्री को भूमि के रूप में देखता है, जबकि पुरुष को उसका स्वामी मानता है। यह परंपरा स्त्री को जीवनभर किसी पुरुष की अधीनता में रखने की सोच से जुड़ी है। इतिहास में भी जब सेनाओं को पुरस्कार दिए जाते थे, तो भूमि, धन और स्त्रियाँ तीनों का वितरण किया जाता था।


पितृसत्ता और लोक-धर्म का प्रभाव

जब मानव ने जंगल छोड़कर खेती शुरू की, तो समाज की संरचना में बदलाव आया। खेती के लिए निरंतर श्रम की आवश्यकता थी, और स्त्रियाँ गर्भवती होकर बच्चों की देखभाल करती थीं। इस दौरान पुरुषों को अधिक स्वतंत्रता मिली, जिससे वे समाज में प्रभुत्व स्थापित करने लगे। खेती ने संपत्ति और स्वामित्व के विचार को जन्म दिया, और पुरुषों ने श्रम और निर्णय का अधिकार अपने हाथ में ले लिया।


धार्मिक ग्रंथों में स्त्री का स्थान

मनुस्मृति जैसे ग्रंथों में यह बताया गया है कि स्त्री को हमेशा पुरुष की अधीनता में रहना चाहिए। विधवा विवाह पर प्रतिबंध लगाया गया और यौनिकता पर नियंत्रण रखा गया। बौद्ध और जैन परंपराओं में भी यही दृष्टिकोण देखने को मिलता है। पश्चिमी परंपराओं में भी स्त्री को पापी दिखाने वाली कहानियाँ प्रचलित हैं, जैसे बाइबिल में ईव का संदर्भ।


वेदांत और स्त्री का स्थान

हालांकि, भारतीय वेदांत में स्त्रियों को ऋषियों की उपाधि दी गई है। गार्गी और मैत्रेयी जैसी स्त्रियों ने ज्ञान की गहराई में जाकर महत्वपूर्ण प्रश्न उठाए। यह दर्शाता है कि भारतीय ज्ञान परंपरा में लिंग कोई बाधा नहीं है। लेकिन जब धर्म सत्ता बन गया, तब स्त्री को केवल शरीर में सीमित कर दिया गया।


स्त्री का जीवन और उसकी सीमाएँ

आज भी भारत के ग्रामीण क्षेत्रों में एक लड़की के जन्म के साथ ही उसके जीवन की दिशा तय कर दी जाती है। उसकी शिक्षा और अवसर उसके लिंग के आधार पर निर्धारित होते हैं। बचपन से ही वह अपने शरीर के प्रति सतर्क रहती है, और जैसे-जैसे वह बड़ी होती है, उसका जीवन उसके द्वारा नहीं, बल्कि दूसरों के द्वारा निर्धारित होता है।


पितृसत्ता का प्रभाव और स्त्री की पहचान

समाज ने स्त्री को केवल उसके शरीर के रूप में देखने की आदत डाल दी है। जब कोई पुरुष बलात्कार करता है, तो उसकी प्रतिष्ठा नहीं जाती, लेकिन स्त्री को अपवित्र माना जाता है। यह सोच अपराध को छुपाने में मदद करती है, क्योंकि स्त्री को सिखाया गया है कि उसका मूल्य उसके शरीर से तय होता है।


वेदांत की ओर: एक नई सोच

वेदांत केवल एक अमूर्त विचार नहीं है, बल्कि यह उस मानसिकता को चुनौती देता है जिसने स्त्रियों को आज्ञाकारिता में रखा है। जब तक हम खुद को केवल दैहिक मानते रहेंगे, तब तक हमारे संबंध भी केवल शारीरिक रहेंगे। परिवर्तन की शुरुआत एक प्रश्न से होती है: "मैं कौन हूँ?" जब स्त्री इस प्रश्न को केंद्र में रखकर जीने लगेगी, तब वह अपने शरीर की पहचान से ऊपर उठने लगेगी।


लेखक की पहचान

आचार्य प्रशांत एक वेदान्त विशेषज्ञ और दार्शनिक हैं, जिन्होंने कई पुस्तकें लिखी हैं और विभिन्न पुरस्कार प्राप्त किए हैं।