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भारतीय सेना की अराजनीतिक छवि पर उठते सवाल

भारतीय सेना की पहचान उसकी अराजनीतिकता में निहित है, लेकिन हाल के बयानों ने उसकी साख पर सवाल उठाए हैं। वायु सेना और थल सेना प्रमुखों के बयानों ने राजनीतिक विमर्श को प्रभावित किया है, जिससे यह प्रतीत होता है कि सेना की प्रतिष्ठा को राजनीतिक लाभ के लिए दांव पर लगाया जा रहा है। क्या यह भारतीय सेना के गौरवशाली इतिहास के विपरीत है? जानें इस लेख में।
 

भारतीय सेना की अराजनीतिक पहचान

भारतीय सेना की पहचान उसकी वीरता और साहस के साथ-साथ उसकी अराजनीतिकता में भी निहित है। देश में चाहे जो भी राजनीतिक स्थिति हो, सेना हमेशा उससे अप्रभावित रहती है। यह एक अनकहा सिद्धांत है कि राजनीतिक दल सेना का राजनीतिकरण नहीं करते और सेना भी राजनीतिक गतिविधियों से दूर रहती है। भारतीय सेना का यह अराजनीतिक दृष्टिकोण न केवल भारत को बाहरी आक्रमणों से सुरक्षित रखता है, बल्कि किसी भी सत्ता के निरंकुश होने में भी बाधा डालता है। लोकतंत्र की रक्षा में सेना ने एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। ब्रिटिश शासन से स्वतंत्रता के बाद, दक्षिण एशिया के कई देशों में सेना का चरित्र अराजनीतिक नहीं रहा, जिसके परिणामस्वरूप उन्हें गंभीर समस्याओं का सामना करना पड़ा। अब भारत में भी ऐसा प्रतीत होता है कि राजनीतिक लाभ के लिए सेना की प्रतिष्ठा को दांव पर लगाने की कोशिश की जा रही है।


संस्थाओं की साख में गिरावट

हाल के समय में भारत में विभिन्न संस्थाओं की साख में गिरावट आई है। कार्यपालिका और विधायिका की साख पहले ही कमजोर हो चुकी थी, और अब न्यायपालिका की साख भी संकट में है। न्यायालय के निर्णयों को राजनीतिक दृष्टिकोण से देखा जाने लगा है, जिससे समाज में विभाजन की स्थिति उत्पन्न हो गई है। हर समूह निर्णयों को अपने नजरिए से देखता है, और यदि निर्णय उनके अनुकूल नहीं होता, तो वे न्यायपालिका की आलोचना करते हैं। इस स्थिति में, सेना ही एकमात्र ऐसी संस्था है, जिस पर लोगों का विश्वास अब भी कायम है।


सेना की साख का राजनीतिकरण

हाल ही में, वायु सेना प्रमुख एयर चीफ मार्शल अमरप्रीत सिंह और थल सेना प्रमुख जनरल उपेंद्र द्विवेदी ने ऑपरेशन सिंदूर के संदर्भ में कुछ ऐसे बयान दिए हैं, जो राजनीतिक विमर्श को प्रभावित करते हैं। एयर चीफ मार्शल ने कहा कि इस ऑपरेशन की सफलता का एक बड़ा कारण राजनीतिक इच्छाशक्ति थी। उन्होंने यह भी कहा कि उन्हें कोई प्रतिबंध नहीं था और उन्होंने अपनी योजना को लागू करने की पूरी स्वतंत्रता थी। यह बयान भारतीय सेना के अराजनीतिक चरित्र के विपरीत प्रतीत होता है।


सैन्य अधिकारियों के बयानों पर सवाल

थल सेना प्रमुख का एक वीडियो भी सामने आया, जिसमें उन्होंने कहा कि ऑपरेशन सिंदूर के दौरान सरकार ने उन्हें फ्री हैंड दिया था। इन बयानों से कई सवाल उठते हैं, जैसे कि क्या पहले के सैन्य अभियानों में सेना को फ्री हैंड नहीं मिला था? क्या राजनीतिक नेतृत्व में इच्छाशक्ति की कमी थी? इन सवालों के जवाब देना आवश्यक है। 1962 के बाद से हर सैन्य अभियान में भारत ने निर्णायक जीत हासिल की है। यदि पहले राजनीतिक नेतृत्व ने फ्री हैंड नहीं दिया था, तो भारतीय सेना ने इतनी लड़ाइयां कैसे जीतीं?


राजनीतिक नैरेटिव का हिस्सा

सेना के अधिकारियों के बयानों से यह स्पष्ट होता है कि यह राजनीतिक नैरेटिव का हिस्सा बनता जा रहा है। जब प्रधानमंत्री और रक्षा मंत्री बार-बार कहते हैं कि मोदी सरकार ने सेना को फ्री हैंड दिया है, तो यह एक राजनीतिक दृष्टिकोण को मजबूत करता है। सवाल यह है कि जब सरकार पहले ही ऑपरेशन सिंदूर की सफलता के बारे में बयान दे चुकी है, तो फिर सैन्य अधिकारियों के बयानों की आवश्यकता क्यों थी? क्या यह दर्शाता है कि सरकार को जनता के विश्वास की कमी का डर है?