रानी लक्ष्मी बाई: वीरता और देशभक्ति की प्रतीक
रानी लक्ष्मी बाई के प्रेरणादायक उद्धरण
रानी लक्ष्मी बाई के उद्धरण: सुभद्रा कुमारी चौहान की प्रसिद्ध कविता 'बुंदेले हरबोलों के मुंह हमने सुनी कहानी थी, खूब लड़ी मर्दानी वह तो झांसी वाली रानी थी' में झांसी की रानी लक्ष्मी बाई का उल्लेख आज भी देशभक्ति और अमरता का प्रतीक है।
झांसी की रानी केवल एक राजकुमारी नहीं थीं, बल्कि वे वीरता, शौर्य और आत्मसम्मान की अद्वितीय मिसाल थीं। उनकी गाथाएं आज भी बुंदेलखंड और अन्य क्षेत्रों में गाई जाती हैं, जो उन्हें देश प्रेमियों के लिए एक किंवदंती बना चुकी हैं।
रानी लक्ष्मी बाई के प्रेरणादायक उद्धरण
दूर फिरंगी को करने की सबने मन में ठानी थी,
चमक उठी सन सत्तावन में वह तलवार पुरानी थी,
बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी,
खूब लड़ी मर्दानी वो तो झाँसी वाली रानी थी।
मातृभूमि के लिए झांसी की रानी ने जान गवाई थी,
अरि दल कांप गया रण में, जब लक्ष्मीबाई आई थी।
हर औरत के अंदर है झाँसी की रानी,
कुछ विचित्र थी उनकी कहानी,
मातृभूमि के लिए प्राणाहुति देने को ठानी,
अंतिम सांस तक लड़ी थी वो मर्दानी।
रानी लक्ष्मी बाई से जुड़े विशेष उद्धरण
रानी लक्ष्मी बाई लड़ी तो,
उम्र तेईस में स्वर्ग सिधारी,
तन मन धन सब कुछ दे डाला,
अंतरमन से कभी ना हारी।
मुर्दों में भी जान डाल दे,
उनकी ऐसी कहानी है,
वो कोई और नहीं,
झांसी की रानी हैं।
अपने हौसले की एक कहानी बनाना,
हो सके तो खुद को झांसी की रानी बनाना।
झांसी की रानी के नारे
“मैं अपने झांसी का आत्म समर्पण नहीं होने दूंगी।”
‘मैदाने जंग में मारना है, फिरंगी से नहीं हारना है।’
‘हम सब एक साथ ग्वालियर में अंग्रेजों पर हमला करेंगे।’
‘यह सभी को पता है ये अंग्रेज, सभी धर्म के खिलाफ हैं।’
‘यदि युद्ध के मैदान में हार गए और मारे गए तो निश्चित रूप से मोक्ष प्राप्त करेंगे।’
‘हम आजादी के लिए लड़ते हैं, अगर कृष्ण के शब्दों में कहें तो, हम विजयी होंगे तो विजय के फल का आनंद लेंगे।’
रानी लक्ष्मी बाई की वीरता
उनकी वीरता के प्रशंसा उनके विरोधियों ने भी की है। 18 जून 1858 को ग्वालियर में दुश्मनों से लड़ते हुए रानी लक्ष्मी बाई ने वीरगति को प्राप्त किया। उनका बलिदान भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में अमर रहेगा।
रानी लक्ष्मी बाई का जन्म 19 नवंबर 1828 को बनारस में हुआ था। उनका बचपन का नाम मणिकर्णिका था। 1842 में उनकी शादी झांसी के महाराजा गंगाधर राव से हुई। शादी के बाद उनका नाम लक्ष्मीबाई पड़ा।
1851 में उन्हें पुत्र रत्न की प्राप्ति हुई, लेकिन चार महीने बाद उस बालक का निधन हो गया। राजा गंगाधर राव ने दत्तक पुत्र दामोदर राव को स्वीकार किया, लेकिन ईस्ट इंडिया कंपनी ने उसे अस्वीकार कर दिया।
27 फरवरी 1854 को लार्ड डलहौजी ने दत्तक पुत्र की गोद अस्वीकृत कर दी और झांसी को अंग्रेजी राज्य में मिला दिया। रानी लक्ष्मीबाई ने कहा, 'मैं अपनी झांसी नहीं दूंगी।'
7 मार्च 1854 को झांसी पर अंग्रेजों का अधिकार हुआ। रानी ने अंग्रेजी सरकार द्वारा दी गई पेंशन को अस्वीकार कर दिया। यहीं से स्वतंत्रता की पहली क्रांति का बीज अंकुरित हुआ।