संयुक्त राष्ट्र का 80वां जन्मदिन: एक उदासी भरा पल
संयुक्त राष्ट्र की स्थिति
क्या किसी संस्था की उम्र बढ़ सकती है? और जैसे-जैसे वह बड़ी होती है, क्या उसे समझदारी और गहराई हासिल होनी चाहिए? लेकिन संयुक्त राष्ट्र, जो अब अस्सी साल का हो चुका है, स्थिरता के बजाय अस्थिरता का सामना कर रहा है। न्यूयॉर्क में स्थित इसकी इमारत भले ही खड़ी है, लेकिन इसकी आत्मा थक चुकी है। इसका उद्देश्य बिखर रहा है और मनोबल गिरता जा रहा है। जो कुछ बचा है, वह समझदारी की चमक नहीं, बल्कि बुढ़ापे की धुंधलाहट है। ऐसा लगता है जैसे मृत्यु का साया इसके चारों ओर मंडरा रहा हो।
जश्न का अभाव
इसलिए, संयुक्त राष्ट्र का 80वां जन्मदिन कोई जश्न नहीं, बल्कि एक उदासी का क्षण बन गया है। न कोई जश्न मनाया गया, न आत्ममुग्धता का प्रदर्शन हुआ। महासभा का माहौल अस्पताल के वार्ड जैसा प्रतीत हो रहा था। सुरक्षा परिषद, जो यूक्रेन और ग़ाज़ा के मुद्दों पर लगभग निष्क्रिय है, केवल इस बात की चर्चा कर रही थी कि क्या यह संस्था अगली ट्रंप प्रशासन तक टिक पाएगी। सीधे शब्दों में कहें तो, संयुक्त राष्ट्र अब आईसीयू में है—साँसें चल रही हैं, लेकिन स्थिति गंभीर है।
संयुक्त राष्ट्र की चुनौतियाँ
संयुक्त राष्ट्र की यह स्थिति नई नहीं है। यह संस्था युद्धोत्तर समझौतों के तहत बनी थी, लेकिन शुरू से ही पाँच स्थायी सदस्यों के वीटो के बोझ तले दबी रही। शीत युद्ध ने इसे और कमजोर किया। अमेरिका ने अपनी शक्ति का दुरुपयोग किया, जबकि सोवियत संघ ने इसे बाधित किया। समय के साथ दुनिया बदली, लेकिन सुरक्षा परिषद की संरचना 1945 में ही अटकी रह गई।
संयुक्त राष्ट्र की प्रासंगिकता
दुनिया जल रही है, और वैश्विक व्यवस्था बिखर चुकी है। यूक्रेन का युद्ध जारी है, और ग़ाज़ा पर इज़रायल का हमला पूरे पश्चिम एशिया को अस्थिर कर रहा है। इस हफ्ते, ऑस्ट्रेलिया, कनाडा, पुर्तगाल और ब्रिटेन ने फ़िलिस्तीन को मान्यता दी, जो वॉशिंगटन और तेल अवीव दोनों की अनदेखी करते हुए किया गया। यदि ट्रंप के दावों पर गौर करें कि उन्होंने 'सात युद्ध एक ही साल में रोके,' तो सवाल उठता है: संयुक्त राष्ट्र क्या कर रहा है?
संयुक्त राष्ट्र का भविष्य
संयुक्त राष्ट्र ने अपनी दिशा क्यों खो दी? इसका मुख्य कारण इसके संरक्षक ही आपस में युद्धरत हैं। अमेरिका, जो कभी इसका सबसे बड़ा समर्थक था, अब इसे नजरअंदाज कर रहा है। ट्रंप ने फंडिंग में कटौती की और कई संगठनों से दूरी बना ली। इस बिखराव ने संयुक्त राष्ट्र को एक म्यूज़ियम में बदल दिया है। सबसे बड़ा सवाल यह है कि क्या ट्रंप और अन्य देश इस संस्था की विश्वसनीयता को बनाए रखेंगे?
संयुक्त राष्ट्र का संकट
संयुक्त राष्ट्र कभी निर्दोष नहीं था, लेकिन आज संकट कई गुना बढ़ गया है—वित्तीय, राजनीतिक और नैतिक। एंतोनियो गुटेरेस, जो वर्तमान में महासचिव हैं, क्या इस समय के नेता हैं? वे न तो साहसिकता का प्रतीक हैं और न ही नैतिक अधिकार का चेहरा। गुटेरेस केवल टिके रहने की कोशिश कर रहे हैं। साल के अंत तक उनके उत्तराधिकारी की दौड़ शुरू हो जाएगी।
संयुक्त राष्ट्र की प्रासंगिकता का सवाल
अस्सी साल बाद, संयुक्त राष्ट्र अब एक थका-हारा रंगमंच प्रतीत होता है। जहाँ शक्तिशाली नेता पुराने संवाद दोहराते हैं। यह अब वह स्थान नहीं रहा जहाँ बुद्धि और आदर्श एक साथ खड़े होते थे। यही उम्र की त्रासदी है: समय के साथ बदलना आवश्यक है। यदि संस्थाएँ परिवर्तन नहीं करतीं, तो वे अपनी यादों के बोझ तले ढह जाती हैं।
संयुक्त राष्ट्र का भविष्य
संयुक्त राष्ट्र ने अपनी गरिमा और प्रतिष्ठा खो दी है। सवाल यह नहीं है कि क्या यह अपनी पुरानी चमक वापस पा सकता है, बल्कि यह है कि क्या यह आज भी प्रासंगिक रह सकता है। यदि यह संस्था—जो युद्ध रोकने के लिए बनी थी—कोई कार्रवाई नहीं कर सकती, तो इतिहास इसे शांति का प्रहरी नहीं लिखेगा।