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सोशल मीडिया पर हास्य की सीमाएं: सुप्रीम कोर्ट का महत्वपूर्ण हस्तक्षेप

सुप्रीम कोर्ट ने सोशल मीडिया पर हास्य के अमानवीय रूपों पर महत्वपूर्ण टिप्पणी की है। न्यायमूर्ति सूर्यकांत और न्यायमूर्ति जोयमाल्या बागची ने कहा कि अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का दुरुपयोग हो रहा है, जिससे विभिन्न समूहों की भावनाएं आहत हो सकती हैं। कोर्ट ने यह भी बताया कि हर समाज में पूर्वाग्रह होते हैं, लेकिन उन्हें दूर करने की जिम्मेदारी समाज की है। जानें इस मुद्दे पर और क्या कहा गया है और इसके समाधान के लिए क्या कदम उठाए जाने चाहिए।
 

सोशल मीडिया पर हास्य का अमानवीय रूप

शारीरिक विशेषताओं पर कटाक्ष, लिंग भेदभाव, जातीय और सांप्रदायिक सोच, और वर्ग भेदभाव से प्रेरित पूर्वाग्रहों को हास्य का विषय बनाकर अश्लीलता फैलाने वाले कथित कॉमेडियन्स की एक बड़ी संख्या आज सोशल मीडिया पर सक्रिय है।


सोशल मीडिया पर हास्य के अमानवीय रूपों पर सुप्रीम कोर्ट ने उचित कदम उठाया है। भारतीय संविधान में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता एक मौलिक अधिकार है, लेकिन यह अधिकार मानव समाज को बेहतर बनाने के लिए होना चाहिए। दुर्भाग्य से, सोशल मीडिया और मुख्यधारा के मीडिया में भी अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का दुरुपयोग हो रहा है। शारीरिक विशेषताओं पर कटाक्ष, लिंग भेदभाव, जातीय और सांप्रदायिक सोच, और वर्ग भेदभाव से प्रेरित पूर्वाग्रहों को हास्य का विषय बनाकर अश्लीलता फैलाने वाले कॉमेडियन्स की एक पूरी फौज वहां सक्रिय है।


न्यायमूर्ति सूर्यकांत और न्यायमूर्ति जोयमाल्या बागची की खंडपीठ ने इन कॉमेडियन्स के संदर्भ में महत्वपूर्ण टिप्पणी की: ‘आज विकलांग व्यक्तियों पर कटाक्ष का दुर्भाग्यपूर्ण मामला सामने आया है। कल यह महिलाओं, बच्चों या बुजुर्गों के मामले में हो सकता है। हर कोई मजाक बना सकता है... आखिर इसकी सीमा कहां है?’ जजों ने कहा कि जब आप ‘अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का व्यापारिक इस्तेमाल कर रहे हैं’, तो आपको यह ध्यान रखना चाहिए कि इससे किसी समूह की भावनाएं आहत हो सकती हैं। शब्दों और वाक्यों के निहितार्थ के प्रति सचेत और संवेदनशील होना सभ्यता के विकास का हिस्सा है।


हर समाज में पूर्वाग्रह होते हैं, लेकिन उनके प्रति जागरूकता लाना और उन्हें दूर करना शिक्षा और सामान्य प्रशिक्षण का हिस्सा होना चाहिए। हमारे देश में इस दिशा में उपेक्षा की गई है, जिसके कारण पूर्वाग्रहों और उन्हें व्यक्त करने वाली भाषा का व्यापक प्रचलन है। पहले मीडिया में संप्रेषण संबंधी भाषा के प्रशिक्षण पर जोर दिया जाता था, जिससे भाषा की मर्यादा का ध्यान रखा जाता था। लेकिन सोशल मीडिया ने सभी को ब्रॉडकास्टर बना दिया है, जिससे हास्य और व्यंग्य के नाम पर भाषाई स्तर की धारणा मिट गई है। ऐसे में सर्वोच्च न्यायालय का हस्तक्षेप आवश्यक था। हालांकि, केवल कुछ कॉमेडियन्स से माफी मांगने से समस्या का समाधान नहीं होगा; इसके लिए जड़ से शुरुआत करनी होगी।