आपातकाल की 50वीं वर्षगांठ: मीडिया पर नियंत्रण और पत्रकारों का उत्पीड़न
आपातकाल का काला अध्याय
आपातकाल की 50वीं वर्षगांठ: 25 जून, 1975 की रात भारत के लोकतंत्र के इतिहास में एक काला अध्याय है, जब तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी की सिफारिश पर राष्ट्रपति फखरुद्दीन अली अहमद ने देश में आपातकाल की घोषणा की। इस निर्णय ने न केवल विपक्षी नेताओं की स्वतंत्रता को सीमित किया, बल्कि पत्रकारों, समाचार पत्रों और मीडिया संस्थानों की स्वतंत्रता पर भी अंकुश लगा दिया। लगभग 21 महीनों तक संविधानिक अधिकारों का निलंबन किया गया और मीडिया पर ऐसा नियंत्रण लगाया गया, जो आज भी लोकतंत्र के लिए एक चेतावनी के रूप में याद किया जाता है।
मीडिया की आवाज को कैसे दबाया गया
इंदिरा गांधी की सरकार ने आपातकाल के दौरान मीडिया को सरकारी नियंत्रण में लाने के लिए हर संभव प्रयास किया। 'समाचार' नामक सरकारी एजेंसी के तहत सभी प्रमुख न्यूज़ एजेंसियों को एकत्रित किया गया और रिपोर्टिंग पर कड़ी निगरानी रखी गई।
पीआईबी सेंसर और स्वीकृति प्रक्रिया
पीआईबी में तैनात अधिकारियों ने हर खबर की छानबीन की। वरिष्ठ पत्रकार वेंकट नारायण ने बताया कि हर पांडुलिपि को पहले मुख्य सेंसर अधिकारी की मंजूरी से गुजरना पड़ता था।
जेल में डाले गए पत्रकार और संपादक
कुलदीप नैयर और के.आर. मलकानी जैसे प्रमुख संपादकों को केवल इसलिए जेल में डाल दिया गया क्योंकि उन्होंने जयप्रकाश नारायण और विपक्ष के पक्ष में समाचार प्रकाशित किए।
खबरों को रोकने के लिए बिजली काटना
26-27 जून 1975 की रात, सरकार ने दिल्ली के बहादुर शाह ज़फर मार्ग पर स्थित समाचार पत्रों के दफ्तरों की बिजली काट दी, ताकि आपातकाल की खबर अगले दिन न छपे।
एयरपोर्ट पर निगरानी
पत्रकार एस. वेंकट नारायण जब लंदन से लौटे, तो दिल्ली एयरपोर्ट पर पुलिस उनकी प्रतीक्षा कर रही थी ताकि यह सुनिश्चित किया जा सके कि कोई 'आपत्तिजनक सामग्री' न लाई जा रही हो।
खाली संपादकीय पर चेतावनी
जब इंडियन एक्सप्रेस ने सेंसरशिप के खिलाफ अपना संपादकीय कॉलम खाली छोड़ा, तब भी सरकार ने अखबार को चेतावनी दी।
आर्थिक दबाव के लिए विज्ञापन रोकना
जो समाचार पत्र सरकार की नीतियों का विरोध करते थे, उनके विज्ञापनों को रोक दिया गया, जिससे उन्हें आर्थिक रूप से दबाया जा सके।
जयप्रकाश नारायण की रैली का संक्षेप
'समाचार' एजेंसी को रामलीला मैदान की ऐतिहासिक रैली की रिपोर्ट केवल कुछ पैराग्राफ़ में समेटनी पड़ी, जबकि यह जनता के लिए एक महत्वपूर्ण घटना थी।
पत्रकारिता का उद्देश्य बदल गया
इस समय के दौरान पत्रकारिता का उद्देश्य सच को उजागर करना नहीं, बल्कि सरकार को खुश करना बन गया। जो लोग नहीं झुके, उन्हें जेल में डाल दिया गया या चुप करवा दिया गया।