गांधी और राम: भारत की पहचान का संघर्ष
गांधी की पुकार और राम का नाम
महात्मा गांधी की अंतिम पुकार 'हे राम' और 'जय श्रीराम' के बीच का द्वैत आज के भारत में उभरते वैचारिक विभाजन का प्रतीक है। ये विभाजन केवल भाषणों तक सीमित नहीं हैं, बल्कि हमारे सामाजिक ताने-बाने में गहराई तक समाहित हैं। इसलिए, हमें इतिहास से सीखने की आवश्यकता है। हमारे सामने दो विकल्प हैं—या तो हम उन सभी पहचान को अपनाएँ जो भारत को बनाती हैं, या केवल एक स्वर को गूँजने दें और बाकी को भुला दें।
गांधी का नाम हटाना: एक बड़ा बदलाव
हाल ही में, भारत सरकार ने एक प्रमुख कार्यक्रम से महात्मा गांधी का नाम हटा दिया और उसकी जगह राम का नाम स्थापित किया। यह केवल एक प्रशासनिक परिवर्तन नहीं है, बल्कि एक महत्वपूर्ण वैचारिक बयान है। यह बदलाव भारत की जटिल स्मृति में हलचल पैदा करता है और बताता है कि समावेशिता और बहुसंख्यकवाद की लड़ाई अब नामों तक पहुँच चुकी है।
संस्कृति और पहचान का संघर्ष
इसकी तुलना अमेरिका में टेक्सास के कुछ स्थानीय अधिकारियों द्वारा 'गल्फ ऑफ मैक्सिको' को 'गल्फ ऑफ अमेरिका' कहने से की जा सकती है। ऐसे नामकरण अभियान सांस्कृतिक स्वामित्व और ऐतिहासिक स्मृति की लड़ाई को उजागर करते हैं। जैसे समुद्र का नाम बदलना यह सवाल खड़ा करता है कि किसका इतिहास महिमामंडित किया जा रहा है, वैसे ही गांधी से राम का यह बदलाव प्रश्न उठाता है कि हम किन कहानियों को सम्मान देना चाहते हैं।
गांधी और राम: वैचारिक अंतर
गांधी का नाम अहिंसक प्रतिरोध और सामाजिक न्याय का प्रतीक है, जबकि राम का नाम उत्सव और विजय का प्रतीक बन चुका है। यह वैचारिक अंतर बताता है कि आज भारत किस मोड़ पर खड़ा है। गांधी सह-अस्तित्व की याचना करते हैं, जबकि राम की गूंज कई बार विभाजनकारी चेतना भी बन सकती है।
नाम बदलने की लागत
हर नाम बदलने की एक आर्थिक, सामाजिक और राजनीतिक लागत होती है। जैसे 2023 में औरंगाबाद का नाम बदलने में कानूनी अड़चनें और प्रशासनिक देरी सामने आई। यह धन सामाजिक योजनाओं में भी लग सकता था। इसके अलावा, बहुस्तरीय इतिहास को मिटाने का खतरा भी मौजूद है।
समावेशिता की आवश्यकता
राम को केंद्र में रखने की हर घोषणा, भारत की विविधता से जुड़ी अन्य कहानियों को हल्का कर देती है। यह वैसा ही है जैसे अमेरिका में क्रिस्टोफर कोलंबस की विरासत को लेकर बहस। जब कोई नया नाम दिया जाता है, तो वह हमें यह पूछने पर मजबूर करता है कि क्या हम समूची स्मृति को समेट पा रहे हैं?
गांधी से राम तक: पहचान का पुनर्निर्माण
गांधी से राम तक की यह यात्रा केवल शब्द नहीं, बल्कि एक मानसिकता का चित्रण है। यह केवल नाम का परिवर्तन नहीं, पहचान का पुनर्निर्माण है। प्रश्न यह है कि क्या राम का नाम हिंदू विरासत को सम्मानित करने का प्रयास है, या यह एक रणनीतिक मोड़ है जो अल्पसंख्यक समुदायों को हाशिए पर धकेल सकता है?
भारत की पहचान का भविष्य
भारत आज एक निर्णायक मोड़ पर खड़ा है। हमारे पास दो रास्ते हैं—या तो हम उन तमाम पहचान को गले लगाएँ जो मिलकर भारत को बनाती हैं, या हम सिर्फ़ एक स्वर को गूँजने दें और बाकी को विस्मृति में छोड़ दें। भविष्य के लिए एक समावेशी रास्ता यही हो सकता है कि हम अपने इतिहास की कई परतों को फिर से देख सकें और साझा कहानी बुन सकें।