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चुनावी वादों की जिम्मेदारी: नेताओं को कैसे ठहराएं जवाबदेह?

चुनावों में नेताओं द्वारा किए गए वादों की जिम्मेदारी पर विचार करते हुए, यह लेख बताता है कि कैसे जनता और मीडिया मिलकर नेताओं को जवाबदेह ठहरा सकते हैं। बिहार विधानसभा चुनाव में किए जा रहे वादों की चर्चा करते हुए, लेख में यह भी बताया गया है कि असंभव वादों को रोकने के लिए क्या उपाय किए जा सकते हैं। जानें कैसे चुनावी वादों को नियंत्रित किया जा सकता है और नेताओं को उनके वादों के लिए जवाबदेह ठहराया जा सकता है।
 

चुनावों में नेताओं के वादों की हिम्मत

राजनीतिक दलों और उनके नेताओं की चुनाव से पहले वादे करने की हिम्मत का मूल कारण यह है कि चुनाव के बाद जनता उन्हें जवाबदेह नहीं ठहराती। जब लोग चुनावी घोषणापत्र के बारे में सवाल नहीं करते, तो नेताओं को यह हिम्मत मिलती है। यदि चुनाव के बाद लोग उनसे उनके वादों के बारे में पूछें, तो स्थिति में सुधार संभव है। एक लेखक ने सही कहा है कि जब झूठ बोलने वाले और सुनने वाले दोनों को पता हो कि झूठ बोला जा रहा है, तो ऐसे झूठ का कोई पाप नहीं लगता।


चुनावों में झूठ का बढ़ता चलन

एक विद्वान ने कहा है कि चुनावों से पहले जितने झूठ बोले जाते हैं, उतने अन्य किसी समय नहीं। इसका अर्थ यह है कि नेता जानते हैं कि वे झूठ बोल रहे हैं और जनता भी जानती है। इस स्थिति में, चुनाव के बाद जनता यह नहीं पूछती कि वादे क्यों पूरे नहीं हुए। यह रवैया नेताओं के लिए एक सुरक्षा कवच बन जाता है।


झूठ के वादों को नियंत्रित करने के उपाय

हालांकि, अब झूठ की पराकाष्ठा बढ़ती जा रही है। नेताओं द्वारा किए जा रहे वादों को नियंत्रित करने के लिए कुछ उपायों पर चर्चा की जानी चाहिए। पहला उपाय यह है कि जनता को सवाल पूछने चाहिए और नेताओं को जवाबदेह ठहराना चाहिए। चुनाव के बाद लगातार उनके वादों की याद दिलानी चाहिए। मीडिया और विपक्षी पार्टियों की भूमिका भी इस प्रक्रिया में महत्वपूर्ण हो सकती है।


नेताओं को वादों का रोडमैप साझा करने के लिए मजबूर करना

एक और उपाय यह है कि नेताओं को यह बताना चाहिए कि वे अपने वादों को कैसे लागू करेंगे। उन्हें यह भी स्पष्ट करना चाहिए कि इसके लिए कितने फंड की आवश्यकता होगी और वह फंड कैसे जुटाया जाएगा। यदि कोई पार्टी या नेता अपने वादों का व्यावहारिक ब्लूप्रिंट साझा नहीं करता है, तो उसे झूठा मानकर चुनाव से पहले ही खारिज कर देना चाहिए।


कानूनी बाध्यता और रिकॉल सिस्टम

एक कानूनी ढांचा होना चाहिए, जिसके तहत यदि नेता या पार्टी अपने चुनावी वादे को समय पर पूरा नहीं करती है, तो जनता उन्हें अदालत में ले जा सके। इसके अलावा, कई देशों में लागू रिकॉल सिस्टम को भारत में भी लागू किया जा सकता है, जिससे जनता अपने चुने हुए प्रतिनिधि को वापस बुला सके।


बिहार विधानसभा चुनाव के संदर्भ में वादों की जिम्मेदारी

बिहार विधानसभा चुनाव में किए जा रहे वादों के संदर्भ में नेताओं को जिम्मेदार ठहराने की आवश्यकता महसूस की जा रही है। तेजस्वी यादव ने वादा किया है कि यदि उनकी सरकार बनती है, तो हर महिला को हर महीने ढाई हजार रुपए दिए जाएंगे। यह वादे एक अलग श्रेणी में आते हैं, जो राज्य की अर्थव्यवस्था पर गंभीर प्रभाव डाल सकते हैं।


सरकारी नौकरियों का असंभव वादा

तेजस्वी यादव का यह वादा कि हर परिवार के एक सदस्य को सरकारी नौकरी दी जाएगी, एक ऐसा वादा है जो पहले कभी नहीं किया गया। यदि यह वादा पूरा किया जाता है, तो बिहार में सरकारी कर्मचारियों की संख्या में भारी वृद्धि होगी। यह सवाल उठता है कि इतने लोगों को वेतन देने के लिए आवश्यक धन कहां से आएगा।


असंभव वादों पर रोक लगाने की आवश्यकता

इस प्रकार के असंभव वादों को रोकने के लिए उपायों की आवश्यकता है। बिहार में जातीय गणना के दौरान भी ऐसे वादे किए गए थे, जिनका कोई ठोस आधार नहीं था। अब समय आ गया है कि ऐसे वादों को रोकने के लिए ठोस कदम उठाए जाएं।