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ठाकरे भाइयों की दोस्ती पर चुनावी हार का साया: क्या बीएमसी चुनाव में मिलेगी चुनौती?

ठाकरे भाइयों की दोस्ती को बेस्ट सोसायटी चुनाव में मिली हार ने एक बड़ा झटका दिया है। इस हार ने उनकी राजनीतिक स्थिति पर सवाल उठाए हैं। क्या वे बीएमसी चुनाव में बीजेपी को चुनौती देने में सफल होंगे? जानें इस चुनावी नतीजे का क्या असर होगा और ठाकरे परिवार की राजनीतिक ताकत पर इसका क्या प्रभाव पड़ेगा।
 

पहली लड़ाई में मिली हार

पहली लड़ाई में मिली हार: ठाकरे भाइयों ने जुलाई में अपने पुराने मतभेदों को भुलाकर एकजुटता का संदेश देने का प्रयास किया। लेकिन बेस्ट सोसायटी के चुनाव में उनकी दोस्ती का पहला परीक्षण हार में बदल गया। 21 सीटों पर खड़े उम्मीदवारों में से कोई भी जीत नहीं सका। चुनाव परिणामों के बाद बीजेपी खेमे में जश्न का माहौल है। मुख्यमंत्री फडणवीस ने कहा कि ठाकरे परिवार ने चुनाव को राजनीतिक रंग दे दिया, लेकिन जनता ने उनके ब्रांड को नकार दिया।


जनता की नाराज़गी का असर

डिप्टी सीएम शिंदे ने चुटकी लेते हुए कहा कि अब EVM पर सवाल उठाने वालों को जवाब मिल गया है। बेस्ट सोसायटी चुनाव में लगभग 15 हजार मराठी सदस्य शामिल थे। नौ साल बाद हुए इस चुनाव में कामगारों की नाराज़गी खुलकर सामने आई। भर्तियों में देरी, सातवें वेतन आयोग का लाभ न मिलना और कई रिटायर कर्मचारियों का ग्रेच्युटी से वंचित रहना, यही असंतोष ठाकरे गठबंधन की हार का कारण बना।


रणनीति का उल्टा असर

रणनीति का उल्टा असर: राज और उद्धव ने 'उत्कर्ष पैनल' बनाकर पूरी ताकत लगाई। उन्हें लगा कि एकजुटता से बड़ा संदेश जाएगा, लेकिन परिणाम इसके विपरीत आए। सहकारी चुनाव को हाई-प्रोफाइल बनाने से विपक्ष को यह साबित करने का मौका मिला कि यह उनकी राजनीतिक नाकामी है।


बीजेपी को मिला बड़ा लाभ

बीजेपी को मिला बड़ा लाभ: नतीजों ने स्पष्ट कर दिया कि ठाकरे भाइयों की दोस्ती से बीजेपी को कोई नुकसान नहीं हुआ। इसके विपरीत, यह दर्शाता है कि मराठी मतदाताओं के बीच उनका प्रभाव कम हो रहा है। सहकारी संस्था पर वर्षों से जो प्रभुत्व था, वह भी कमजोर होता दिख रहा है। बीजेपी नेताओं ने इसे जनता का भरोसा बताया और कहा कि ठाकरे परिवार की राजनीति अब प्रभावी नहीं रही।


बीएमसी चुनाव पर प्रभाव

बीएमसी चुनाव पर प्रभाव: अब सबसे बड़ा सवाल बीएमसी चुनाव का है। क्या ठाकरे भाई मिलकर बीजेपी को चुनौती दे पाएंगे? मुंबई नगर निगम का चुनाव सोसायटी से कहीं बड़ा दांव है। मराठी वोट बैंक यहां निर्णायक होता है और बीजेपी पूरी तैयारी में है। इस चुनाव में हारने का मतलब केवल सीटें गंवाना नहीं, बल्कि पूरे संगठन की पकड़ ढीली होना है।


करो या मरो की स्थिति

करो या मरो की स्थिति: उद्धव ने कांग्रेस-एनसीपी के साथ महाविकास अघाड़ी बनाई थी, जबकि राज ने हिंदुत्व और मराठी मानुस का रास्ता चुना। लोकसभा चुनाव में दोनों की हार के बाद वे एक साथ आए। लेकिन इस हार ने गठबंधन की मजबूती पर सवाल खड़े कर दिए हैं। बीएमसी चुनाव अब उनकी असली अग्निपरीक्षा होगी। जानकारों का मानना है कि यदि यह गठबंधन यहां भी असफल हुआ, तो दोनों की राजनीतिक जमीन और खिसक जाएगी।