न्यायपालिका की विश्वसनीयता पर उठते सवाल: एक गंभीर चिंता
न्यायपालिका की स्थिति पर चिंतन
न्यायपालिका की विश्वसनीयता पर अब खुलकर सवाल उठाए जाने लगे हैं। यह संस्था, जो संविधान में लोगों के विश्वास का प्रतीक मानी जाती है, अब अपनी मान्यता खोती जा रही है। इस गिरावट को तुरंत रोकना आवश्यक है।
भारत में संवैधानिक ढांचे पर लगातार हमले हो रहे हैं। विपक्षी दल अब बिना किसी संकोच के यह आरोप लगा रहे हैं कि चुनावों में धांधली की गई है। हाल ही में, राहुल गांधी ने अपनी जर्मनी यात्रा के दौरान स्पष्ट रूप से कहा कि हरियाणा विधानसभा चुनाव में असल में कांग्रेस की जीत हुई थी, जबकि महाराष्ट्र में चुनाव निष्पक्ष नहीं थे। इस प्रकार, विपक्ष और उसके समर्थक सीधे निर्वाचित सदनों और उनके आधार पर बनी सरकारों की वैधता पर सवाल उठा रहे हैं। इसके अलावा, निर्वाचन आयोग और अन्य संवैधानिक संस्थाओं के प्रति अविश्वास बढ़ता जा रहा है।
हाल ही में, उन्नाव कांड में सजायाफ्ता कुलदीप सिंह सेंगर को जमानत देने के खिलाफ दिल्ली हाई कोर्ट के बाहर महिला संगठनों ने प्रदर्शन किया। कोर्ट के बाहर प्रदर्शन करना असामान्य है। इसके अलावा, उन्नाव कांड की पीड़िता ने जजों पर 'पैसा खाने' का आरोप लगाया, जो न्यायालय की अवमानना के रूप में देखा जा सकता है। सामान्यतः न्यायिक फैसलों की आलोचना की जा सकती है, लेकिन जजों की नीयत पर संदेह नहीं किया जा सकता। हाल ही में, जमीयत-उलेमा-ए-हिंद के अध्यक्ष मौलाना महमूद मदनी ने भी कहा कि सुप्रीम कोर्ट सरकार के दबाव में काम कर रहा है और अल्पसंख्यकों के अधिकारों की रक्षा में असफल रहा है।
ये घटनाएं दर्शाती हैं कि न्यायपालिका की मंशा पर अब सार्वजनिक रूप से सवाल उठाए जा रहे हैं। यह संस्था, जो संविधान में लोगों के विश्वास का आधार है, अब अपनी भूमिका को खोती जा रही है। इस गिरावट को तुरंत रोकना आवश्यक है। सामान्यतः राजनीतिक नेतृत्व को अपने मतभेदों को भुलाकर संवैधानिक व्यवस्था के प्रति विश्वास बहाल करने की कोशिश करनी चाहिए, लेकिन दुर्भाग्यवश, वर्तमान में ऐसा होने की कोई उम्मीद नहीं दिखाई देती।