पाकिस्तान में आतंकवाद और राजनीति का खतरनाक मेल
पाकिस्तान की राजनीतिक स्थिति
पाकिस्तान की राजनीतिक स्थिति एक बार फिर अपने पुराने स्वरूप में लौट आई है। जबकि यह अंतरराष्ट्रीय स्तर पर आतंकवाद के खिलाफ सहयोग का दावा करता है, वहीं इसके मंत्री आतंकवादी संगठनों के राजनीतिक चेहरों से मिलते हुए नजर आ रहे हैं। यह दोहरा व्यवहार न केवल दक्षिण एशिया की स्थिरता के लिए खतरा है, बल्कि यह भी दर्शाता है कि पाकिस्तान की कथित लोकतांत्रिक प्रणाली आतंकवाद के प्रभाव से मुक्त नहीं हो पाई है।
तलाल चौधरी की विवादास्पद मुलाकात
हाल ही में फैसलाबाद से आई रिपोर्टों के अनुसार, गृह राज्य मंत्री तलाल चौधरी ने प्रतिबंधित आतंकवादी संगठन जमात-उद-दावा के राजनीतिक विंग, पाकिस्तान मार्कज़ी मुस्लिम लीग (PMML) के नेताओं से मुलाकात की। यह वही संगठन है जिसका प्रमुख हाफ़िज़ सईद 26/11 के मुंबई हमलों का मास्टरमाइंड है। सूत्रों के अनुसार, चौधरी ने PMML कार्यालय में पार्टी नेताओं के साथ "राजनीतिक स्थिरता" और "लोकतांत्रिक निरंतरता" पर चर्चा की। PMML ने बयान में कहा कि सभी राजनीतिक दलों को सामंजस्य और सहयोग की दिशा में काम करना चाहिए। हालांकि, यह लोकतंत्र की भाषा लग सकती है, लेकिन वास्तव में यह आतंकवाद में लिप्त संगठन को राजनीतिक वैधता देने का प्रयास है।
पाकिस्तान की राजनीतिक रणनीति
पाकिस्तान की राजनीति में आतंकवादी संगठनों की भागीदारी कोई नई बात नहीं है। परवेज मुशर्रफ़ के समय से लेकर इमरान खान तक, चरमपंथी समूहों का उपयोग राजनीतिक लाभ के लिए किया गया है। लेकिन अब जब शाहबाज़ शरीफ़ की सरकार के मंत्री खुद ऐसे संगठनों के साथ "लोकतांत्रिक सहयोग" की बात कर रहे हैं, तो यह इस्लामाबाद में सत्ता के खोखलेपन को दर्शाता है।
अंतरराष्ट्रीय दबाव और आतंकवाद
पाकिस्तान वही देश है जो फाइनेंशियल एक्शन टास्क फोर्स (FATF) की ग्रे लिस्ट से बाहर निकलने के लिए आतंकवाद के खिलाफ कार्रवाई का दिखावा करता रहा है। लेकिन जैसे ही अंतरराष्ट्रीय दबाव कम होता है, आतंकी नेटवर्कों के साथ राजनीतिक संबंध फिर से खुलकर सामने आ जाते हैं।
भारत के लिए संकेत
भारत के लिए यह घटना एक बार फिर यह साबित करती है कि पाकिस्तान की सरकार और आतंकवादी संगठन एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। पहलगाम आतंकी हमले के बाद PMML की गतिविधियों में तेजी आई है, जो दर्शाता है कि पाकिस्तान की नीति अभी भी "राज्य प्रायोजित आतंकवाद" की है। जब भी भारत शांति की पहल करता है, पाकिस्तान अपने आतंकी नेटवर्क को सक्रिय कर देता है।
दक्षिण एशिया की चिंता
यह घटनाक्रम नई दिल्ली को यह समझाने का संकेत देता है कि इस्लामाबाद की किसी भी "लोकतांत्रिक" सरकार से उम्मीदें रखना केवल भ्रम है। चाहे सत्ता में नवाज़ शरीफ़ हों, इमरान खान हों या शाहबाज़ शरीफ़, नीति वही रहती है: आतंकवाद को राजनीतिक औज़ार बनाना। यह घटना न केवल भारत बल्कि पूरे दक्षिण एशिया के लिए चिंता का विषय है। अमेरिका और पश्चिमी देशों ने पाकिस्तान को चेतावनी दी है कि आतंकवाद से जुड़े संगठनों को मुख्यधारा की राजनीति में लाना FATF के सिद्धांतों का उल्लंघन है।
भविष्य की चुनौतियाँ
सामरिक दृष्टि से, यह कदम दो खतरनाक संकेत देता है। पहला, पाकिस्तान अपने आंतरिक अस्थिरता को नियंत्रित करने के लिए आतंक समर्थक समूहों को "राजनीतिक साझेदार" के रूप में इस्तेमाल कर रहा है। इससे चरमपंथ को संस्थागत समर्थन मिलता है। दूसरा, यह भारत और अफगानिस्तान के खिलाफ भविष्य में और अधिक संगठित आतंकवादी कार्रवाइयों का संकेत हो सकता है।
राजनीतिक औपचारिकता या गंभीरता?
तलाल चौधरी की यह मुलाकात केवल एक राजनीतिक औपचारिकता नहीं है, बल्कि यह उस पाकिस्तान का प्रतीक है जो अंतरराष्ट्रीय दबाव में आतंकवाद से दूरी का दिखावा करता है, लेकिन भीतर से उसी नेटवर्क को पोषण देता है। आतंकवाद को लोकतंत्र के नाम पर वैधता देने की यह राजनीति पाकिस्तान की सबसे बड़ी विडंबना है। इस्लामाबाद को यह समझना होगा कि आतंक और लोकतंत्र साथ नहीं चल सकते।
पाकिस्तान का भविष्य
पाकिस्तान का यह "राजनीतिक आतंकीकरण" उसके भविष्य के लिए विनाशकारी साबित हो सकता है, क्योंकि जो देश अपने गुनाहों को "राजनीतिक प्रक्रिया" में समाहित कर लेता है, वह अंततः अपने ही भीतर विस्फोट से नष्ट होता है।