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भारत की अनोखी मेट्टूपालयम-ऊंटी ट्रेन: धीमी गति में छिपा सौंदर्य

भारत की मेट्टूपालयम-ऊंटी ट्रेन, जो साइकिल से भी धीमी है, 46 किलोमीटर की दूरी तय करने में 5 घंटे लगाती है। यह ट्रेन घने जंगलों और पहाड़ों के बीच से गुजरती है, जिससे यात्रियों को प्रकृति का अद्भुत अनुभव मिलता है। इसकी यात्रा का समय और किराया पर्यटकों के लिए अनुकूल है, और यह यूनेस्को की विश्व धरोहर सूची में भी शामिल है। जानें इस अनोखी ट्रेन के बारे में और इसके सफर के रोमांच के बारे में।
 

मेट्टूपालयम-ऊंटी ट्रेन का सफर

नई दिल्ली: वर्तमान समय में जब पूरी दुनिया बुलेट ट्रेनों और हाइपरलूप जैसी तेज तकनीकों की ओर बढ़ रही है, भारत भी वंदे भारत जैसी सेमी-हाई स्पीड ट्रेनों के साथ इस दौड़ में शामिल है। लेकिन, देश में एक ऐसी ट्रेन भी है जिसकी गति इतनी धीमी है कि एक साधारण साइकिल सवार भी उसे आसानी से पीछे छोड़ सकता है। यह ट्रेन है मेट्टूपालयम-ऊंटी नीलगिरि पैसेंजर ट्रेन। अपनी धीमी गति के बावजूद, यह ट्रेन पर्यटकों के लिए एक प्रमुख आकर्षण बनी हुई है, क्योंकि इसकी 'कछुआ चाल' यात्रियों को प्रकृति के करीब होने का असली अनुभव देती है।


मेट्टूपालयम से ऊधगमंडलम (ऊंटी) के बीच चलने वाली यह ऐतिहासिक ट्रेन केवल 46 किलोमीटर की दूरी तय करने में पूरे 5 घंटे का समय लेती है। इसकी यह सुस्त गति यात्रियों के लिए किसी वरदान से कम नहीं है, क्योंकि यह ट्रेन घने जंगलों और पहाड़ों के बीच से बेहद इत्मीनान से गुजरती है। सफर के दौरान, यह टॉय ट्रेन किल्लार, कुनूर, वेलिंगटन और लवडेल जैसे स्टेशनों से होकर अपनी मंजिल तक पहुंचती है। खड़ी चढ़ाई चढ़ते हुए, यह ट्रेन 208 खतरनाक मोड़ों, 250 पुलों और 16 अंधेरी सुरंगों से गुजरती है। नीली बोगियों में बैठे यात्रियों के लिए इन वादियों का दीदार एक यादगार अनुभव बन जाता है, जिसे वे अपनी यादों और कैमरों में कैद करने के लिए इस ट्रेन का चुनाव करते हैं।


इस हेरिटेज ट्रेन का शेड्यूल और किराया पर्यटकों के लिए अनुकूल है। मेट्टूपालयम से यह ट्रेन सुबह लगभग 7:10 बजे रवाना होती है और दोपहर 12 बजे ऊंटी पहुंचती है। वापसी में, यह ऊंटी से दोपहर 2 बजे चलकर शाम 5:35 बजे मेट्टूपालयम लौटती है। इस शानदार सफर के लिए प्रथम श्रेणी का किराया लगभग 600 रुपये है, जबकि द्वितीय श्रेणी का टिकट इससे लगभग आधा है। सस्ते किराए और बेहतरीन नजारों के कारण इस ट्रेन में साल भर पर्यटकों की भीड़ उमड़ी रहती है।


इस रेलवे लाइन का इतिहास भी काफी दिलचस्प और संघर्षपूर्ण रहा है। भारत में हिल स्टेशनों को जोड़ने के लिए अंग्रेजों ने काफी मेहनत की थी। यूनेस्को के अनुसार, नीलगिरि माउंटेन रेलवे का प्रस्ताव सबसे पहले 1854 में रखा गया था, लेकिन पहाड़ों की दुर्गम चढ़ाई और भौगोलिक चुनौतियों के कारण इसे हकीकत बनने में करीब पांच दशक लग गए। अंततः 1891 में इसका निर्माण कार्य शुरू हुआ और 1908 में यह मीटर-गेज लाइन बनकर तैयार हुई। आज, दार्जिलिंग हिमालयन रेलवे और कालका-शिमला रेलवे के साथ-साथ यह ट्रेन भी यूनेस्को की 'माउंटेन रेलवेज ऑफ इंडिया' की विश्व धरोहर सूची में शामिल है।