भारत की समृद्धि: चमक के पीछे की थकान
समृद्धि का वास्तविक अर्थ
खुशहाली और समृद्धि का असली मतलब क्या है, खासकर उस देश के लिए जो बाहरी तौर पर जीतता हुआ दिखता है, लेकिन अंदर से थका हुआ और खोखला है?
कागजों, सोशल मीडिया, प्रेस कॉन्फ्रेंस और सरकारी आयोजनों में भारत की अर्थव्यवस्था तेजी से बढ़ती नजर आ रही है। उसकी कूटनीति आत्मविश्वास से भरी है और वैश्विक छवि दमक रही है। लेकिन इस चमक के पीछे क्या छिपा है? क्या यह थकान और हैरानी नहीं है? एक ऐसा राष्ट्र जो दुनिया के लिए बहुत कुछ कर रहा है, लेकिन अपने लिए खुद को भूल गया है।
कौटिल्य इकोनॉमिक कॉन्क्लेव
यह सवाल कौटिल्य इकोनॉमिक कॉन्क्लेव के दौरान नई दिल्ली के ताज पैलेस होटल में उठता रहा। वित्त मंत्रालय और इंस्टीट्यूट ऑफ इकोनॉमिक ग्रोथ द्वारा आयोजित इस तीन दिवसीय कार्यक्रम में वही जानी-पहचानी मंडली थी — मंत्री, नौकरशाह, अर्थशास्त्री और थिंक टैंक के चेहरे। विषय था — "तूफ़ानी समय में समृद्धि की तलाश।"
हालांकि, संवाद का स्वर बंद कमरों से बाहर नहीं आया। यह नये भारत के नीति-निर्माताओं की अपनी गूँज थी — वही चेहरे, वही आशावाद, वही आत्म-प्रशंसा।
आर्थिक असमानता की सच्चाई
विचार रोचक था — "टूटते वैश्विक क्रम में समृद्धि का अर्थ क्या है?" लेकिन इससे पहले भारत को अपने भीतर झाँकने की आवश्यकता है। यह पूछने की कि उसके लिए समृद्धि का क्या मतलब है। क्योंकि आंकड़ों के पीछे एक जटिल सच्चाई है — एक ऐसी अर्थव्यवस्था जो आंकड़ों में बढ़ रही है, लेकिन अंदर से खोखली हो रही है।
मणिपुर से लेकर लद्दाख तक असंतोष उबल रहा है। वर्ल्ड इनइक्वैलिटी लैब की रिपोर्ट बताती है कि भारत की शीर्ष 1 प्रतिशत आबादी अब कुल राष्ट्रीय आय के 22.6 प्रतिशत की मालिक है।
भारत की आत्मविश्वास की छवि
दूरी से देखें तो भारत आत्मविश्वासी लगता है। राजनयिक "मल्टीपोलर लीडरशिप" की बातें करते हैं, लेकिन मंच से हटते ही एक और भारत सामने आता है — जो अपनी सफलता के बावजूद भावनात्मक रूप से थका हुआ है।
कॉन्क्लेव से लौटते वक्त, मैंने दिल्ली को देखा — बिखरती हुई। बारिश, खुदाई और ट्रैफिक ने शहर को एक निर्माण स्थल बना दिया है।
त्यौहारों की अराजकता
त्यौहार की तैयारी भी उसी अराजकता में ढल गई है। फुटपाथों पर सजे दीये और झालरें सड़क के आधे हिस्से को निगल चुकी हैं। यह टूटता हुआ शहर, जो अब भी चमकने का अभिनय कर रहा है, शायद भारत की सबसे सटीक तस्वीर है।
यह थकान नई नहीं है, बस धीरे-धीरे संचित होती आई है। बाजार चमकते हैं, लेकिन भीड़ कम है।
मध्यम वर्ग की चिंताएँ
भारतीय मध्यम वर्ग, जो कभी आशावान था, अब चिंतित है। घर खरीदना अब सपने से बाहर हो चुका है। युवा पेशेवर किराया, कर्ज़ और 'साइड-हसल' के बीच झूल रहे हैं।
यह थकान केवल आर्थिक नहीं, मानसिक भी है। भारत अब आँकड़ों और उपलब्धियों के प्रदर्शन में जी रहा है, लेकिन नागरिक उस खुशी को महसूस नहीं कर पा रहे हैं।
आर्थिक असमानता का नया दौर
ब्रिटिश राज के एक सदी बाद यह व्यंग्यात्मक है कि जिस सरकार ने औपनिवेशिक मानसिकता से मुक्त होने का दावा किया था, वही अब "बिलियनेयर राज" की सबसे असमान अवस्था में है।
भारत का नया अभिजात वर्ग अब वही कर रहा है जो उपनिवेशकों ने शुरू किया था — मुनाफ़ा अपने ही लोगों से निकालना।
नया भारत: उत्सव का अभिनय
इस साल बाजारों की रोशनी तेज है, लेकिन मूड उदास है। खुशियाँ कृत्रिम लगती हैं। शायद इसलिए कि "नया भारत" अब उत्सव मनाता नहीं, उत्सव अभिनय करता है।
कौटिल्य कॉन्क्लेव में वित्त मंत्री ने कहा — "भारत वैश्विक समृद्धि के निर्माण में केंद्रीय भूमिका निभाएगा।" यह एक आत्मविश्वास भरा दावा था।