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भारत में जलवायु संकट: राजनीति की चुप्पी और नागरिकों की जिम्मेदारी

भारत जलवायु परिवर्तन के संकट का सामना कर रहा है, लेकिन राजनीतिक चुप्पी इसे और बढ़ा रही है। इस लेख में हम देखेंगे कि कैसे जलवायु परिवर्तन चुनावी मुद्दा नहीं बनता और समाज की जिम्मेदारी क्या है। क्या हम इस चुप्पी को तोड़ सकते हैं? जानें इस महत्वपूर्ण विषय पर एक गहन विश्लेषण।
 

जलवायु परिवर्तन का संकट

भारत कई चीज़ों का प्रतीक हो सकता है, लेकिन राजनीति से मुक्त नहीं। यहां तक कि हमारे खाने, पूजा, देखने और विवाह के चुनावों में भी राजनीति शामिल है। आवारा कुत्तों से लेकर सड़क पर विरोध प्रदर्शन तक, व्हाट्सऐप फ़ॉरवर्ड से लेकर युद्ध तक—हर चीज़ में विचारधारा की छंटनी होती है। राजनीति केवल संसद में नहीं, बल्कि हमारे घरों, चुटकुलों और चुप्पियों में भी है। फिर भी, इस शोरगुल भरे देश में एक ऐसा संकट है जो राजनीतिक बहसों से परे है, और वह है जलवायु परिवर्तन।


जलवायु परिवर्तन की गंभीरता

भारत दुनिया के सबसे अधिक जलवायु-संवेदनशील देशों में से एक है। इसकी गंभीरता को समझने के लिए किसी रिपोर्ट की आवश्यकता नहीं है; इसे हम अपनी सांसों में महसूस कर सकते हैं। तस्वीरों में दरकती नदियों और डूबे हुए घरों को देख सकते हैं। देश का 90 प्रतिशत हिस्सा अब चरम गर्मी के खतरे में है। 2023 में हुए एक सर्वे में 91 प्रतिशत भारतीयों ने ग्लोबल वार्मिंग को लेकर चिंता व्यक्त की।


राजनीतिक चुप्पी का कारण

फिर भी, इस मुद्दे पर न तो कोई बड़ा विरोध है, न ही यह चुनावी मुद्दा बनता है। क्या इसका कारण यह है कि जलवायु परिवर्तन वोट नहीं दिलाता? पिछले साल लोग गर्मी में वोट डालने के लिए बेहोश हो गए, लेकिन किसी नेता ने इसे चुनावी मुद्दा नहीं बनाया। बिहार हर साल बाढ़ से प्रभावित होता है, लेकिन चुनावों में चर्चा का केंद्र जाति ही होती है।


जलवायु परिवर्तन की अनदेखी

हमारे पास कई एंटी-करप्शन योद्धा और युवा आइकन रहे हैं, लेकिन जलवायु परिवर्तन का कोई नेता नहीं उभरा। जाति वोट दिलाती है, धर्म वफादारी देता है, लेकिन जलवायु परिवर्तन जिम्मेदारी मांगता है। यह एक दीर्घकालिक योजना और नीतिगत बहस की आवश्यकता है।


समाज की चुप्पी

हम सभी इस चुप्पी के लिए जिम्मेदार हैं। हमने असफलताओं को सामान्य बना लिया है। दिल्ली में गड्ढों से भरी सड़कें हैं, और हम बस कंधे उचकाते हैं। जब बाढ़ आती है, तो हम इसे किस्मत मान लेते हैं।


राजनीतिक और प्रशासनिक निष्क्रियता

हम चुप रहते हैं, यही कारण है कि संसद में जलवायु परिवर्तन पर चर्चा नहीं होती। मंत्री आपदा स्थलों पर आते हैं, लेकिन वास्तविकता को नजरअंदाज कर देते हैं। जनता भी सोशल मीडिया पर प्रतिक्रिया देती है, लेकिन अगले संकट तक आगे बढ़ जाती है।


वैश्विक मंच पर भारत की स्थिति

भारत ने वैश्विक मंच पर जलवायु परिवर्तन के प्रति अपनी प्रतिबद्धता जताई है, लेकिन वास्तविकता यह है कि देश में कोई ठोस जलवायु परिवर्तन कानून नहीं है। हम स्मार्ट सिटी बना रहे हैं, लेकिन स्मार्ट ड्रेनेज के बिना। जलवायु परिवर्तन सभी की समस्या है, लेकिन जिम्मेदारी किसी की नहीं।


निष्कर्ष

भारत की जलवायु राजनीति अब महत्वाकांक्षाओं और प्रशासनिक जड़ता के बीच फंसी हुई है। जब तक हम अपने चुनाव, शासन और विकास की सोच को नहीं बदलेंगे, तब तक हमारा भविष्य खतरे में रहेगा।