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मध्य प्रदेश में ओबीसी आरक्षण पर सुप्रीम कोर्ट का फैसला: राजनीतिक समीकरण और सामाजिक समरसता

मध्य प्रदेश में ओबीसी आरक्षण को लेकर सुप्रीम कोर्ट में चल रही सुनवाई ने राजनीतिक हलचल पैदा कर दी है। भाजपा ने 14 प्रतिशत से बढ़ाकर 27 प्रतिशत आरक्षण की मांग की है, जिसका उद्देश्य हिंदू समाज में जातीय विभाजन को बढ़ावा देना है। 2027 में होने वाली जाति जनगणना के माध्यम से मोदी सरकार का लक्ष्य नए राजनीतिक समीकरण बनाना है। जानें कैसे यह निर्णय समाज में समानता और न्याय की अवधारणा को प्रभावित करेगा।
 

मध्य प्रदेश का सामाजिक समरसता मॉडल

क्या आप जानते हैं कि भारत में सामाजिक समरसता का सबसे अच्छा उदाहरण कौन सा राज्य है? मेरा मानना है कि मध्य प्रदेश इस मामले में सबसे आगे है। हाल ही में, भाजपा ने ओबीसी आरक्षण को 14 प्रतिशत से बढ़ाकर 27 प्रतिशत करने के लिए सुप्रीम कोर्ट में याचिका दायर की है। भाजपा का कहना है कि कांग्रेस ने लंबे समय तक सत्ता में रहते हुए किसी भी वर्ग के साथ न्याय नहीं किया। अब यह मामला सुप्रीम कोर्ट में है, और भाजपा को न्यायपालिका पर भरोसा है कि वह मध्य प्रदेश में ओबीसी के लिए 27 प्रतिशत आरक्षण को मंजूरी देगी।


इसका मतलब है कि भाजपा, संघ परिवार और मोहन यादव की सरकार राज्य में ओबीसी (51 प्रतिशत), अनुसूचित जाति (15.6 प्रतिशत) और अनुसूचित जनजाति (21.1 प्रतिशत) के तीनों वर्गों के लिए आरक्षण का एक नया रोडमैप तैयार कर रही है।


यह सब मोदी सरकार की पिछले 11 वर्षों की राजनीति का परिणाम है। सत्ता बनाए रखने की इस जिद ने कांग्रेस और राहुल गांधी को 'जितनी आबादी, उतना हक़' के एजेंडे की ओर धकेल दिया है। सुप्रीम कोर्ट और जनगणना के माध्यम से भाजपा हिंदू समाज को और अधिक विभाजित करने की योजना बना रही है।


जाति जनगणना का महत्व

कैसे? मोदी सरकार 2027 में जाति जनगणना कराने की योजना बना रही है। यह स्वतंत्र भारत में पहली बार होगा कि जाति के साथ उपजातियों और अन्य समूहों का वर्गीकरण किया जाएगा। जैसे कर्नाटक में लिंगायतों को बांटने की कोशिश की जा रही है, वैसे ही अगली जनगणना में पिछड़ों के बीच अति पिछड़ों का वर्गीकरण भी होगा।


इसका मतलब यह है कि यदि जाति जनगणना में हिंदू जाट की उपजातियों की आर्थिक स्थिति को ध्यान में रखा गया, तो आश्चर्य नहीं होगा कि नए समूह बनेंगे। यह सब 2029 के लोकसभा चुनाव से पहले हिंदुओं को और बांटने की योजना का हिस्सा है।


इसका उद्देश्य जातीय पहचान और आरक्षण के माध्यम से वोट हासिल करना है।


आरक्षण की विफलता

आरक्षण व्यवस्था लागू होने के 75 वर्षों बाद भी, क्या भारत का दलित चीफ जस्टिस, दलित आईपीएस एडीजीपी, और दलित कांस्टेबल की हालिया घटनाएं यह नहीं दर्शातीं कि आरक्षण पूरी तरह से विफल हो चुका है? यह व्यवस्था हिंदू समाज में समानता की बजाय जातीय पूर्वाग्रहों और वैमनस्य को बढ़ावा दे रही है।


हर हिंदू को हरियाणा के वरिष्ठ आईपीएस एडीजीपी पुरण कुमार के सुसाइड नोट और उनकी पत्नी की शिकायत को पढ़ना चाहिए। इससे यह स्पष्ट होगा कि आरक्षण ने हिंदू समाज को मानसिक उत्पीड़न का शिकार बना दिया है।


इससे समाज में जलालत और भेदभाव की स्थिति उत्पन्न हुई है।


भविष्य की चुनौतियाँ

मोदी राज में, कांग्रेस, भाजपा और लेफ्ट की राजनीति में मंडल-कमंडल दोनों सीमाबद्ध थे। लेकिन अब यदि राहुल गांधी का 'जितनी आबादी, उतना हक़' का विचार है, तो यह मोदी-शाह द्वारा जातीय राजनीति के माध्यम से वोट प्रबंधन का परिणाम है।


मोदी सरकार ने राजनीति को धर्म, जाति और पैसे के प्रोपेगेंडा में बदल दिया है। यह ध्यान रखना महत्वपूर्ण है कि मोदी सरकार सुप्रीम कोर्ट से आरक्षण की सीमा बढ़वाने की योजना बना रही है।


इसका उद्देश्य 2029 के चुनावों में प्राइवेट क्षेत्र में आरक्षण लागू करना है।