राज्य सरकारों ने सुप्रीम कोर्ट में राज्यपालों की भूमिका पर उठाया सवाल
सुप्रीम कोर्ट में राज्य सरकारों का बयान
नई दिल्ली। कई राज्यों की सरकारों ने, जो भाजपा के अधीन नहीं हैं, सुप्रीम कोर्ट में यह स्पष्ट किया है कि कानून बनाने का अधिकार केवल विधानसभा का है और इसमें राज्यपाल की कोई भूमिका नहीं होनी चाहिए। इन राज्यों ने विधानसभा द्वारा पारित विधेयकों को लंबे समय तक रोकने के लिए राज्यपालों की मनमानी का विरोध करते हुए यह बात कही। उन्होंने सुप्रीम कोर्ट के उस निर्णय का समर्थन किया, जिसमें राष्ट्रपति और राज्यपाल के लिए विधेयकों को मंजूरी देने की समय सीमा निर्धारित की गई थी।
सुप्रीम कोर्ट की सुनवाई
सुप्रीम कोर्ट के इस मामले पर राष्ट्रपति ने अनुच्छेद 143 के तहत संदर्भ भेजा है। बुधवार को इस मामले की सुनवाई लगातार सातवें दिन हुई। सुनवाई के दौरान पश्चिम बंगाल, तेलंगाना और हिमाचल प्रदेश की सरकारों ने विधेयकों को रोकने की विवेकाधिकार शक्ति का विरोध किया। राज्यों ने कहा कि कानून बनाना विधानसभा का कार्य है, जिसमें राज्यपालों की कोई भूमिका नहीं होनी चाहिए। वे केवल औपचारिक प्रमुख होते हैं।
राज्यपालों की भूमिका पर सवाल
राज्यों ने यह भी कहा कि केंद्र सरकार सुप्रीम कोर्ट के डेडलाइन लागू करने के फैसले को चुनौती देकर संविधान की मूल भावना को कमजोर करना चाहती है। चीफ जस्टिस बीआर गवई, जस्टिस सूर्यकांत, जस्टिस विक्रम नाथ, जस्टिस पीएस नरसिम्हा और जस्टिस एएस चंदुरकर की संविधान पीठ इस मामले की सुनवाई कर रही है। कोर्ट ने पहले कहा था कि राज्यपाल विधेयकों को अनिश्चितकाल तक लंबित नहीं रख सकते। अगली सुनवाई 9 सितंबर को होगी।
वकीलों की दलीलें
बुधवार की सुनवाई में पश्चिम बंगाल के वकील कपिल सिब्बल ने कहा, 'यदि विधानसभा से पारित बिल राज्यपाल को भेजा जाता है, तो उन्हें उस पर हस्ताक्षर करना अनिवार्य है।' उन्होंने यह भी कहा कि संविधान के अनुच्छेद 200 में राज्यपाल के संतुष्ट होने की कोई शर्त नहीं है। सिब्बल ने कहा, 'या तो वे बिल पर हस्ताक्षर करें, या उसे राष्ट्रपति को भेज दें। लगातार रोके रखना संविधान की भावना के खिलाफ है।' हिमाचल सरकार के वकील आनंद शर्मा ने कहा कि संघीय ढांचा भारत की ताकत है और यह संविधान के बुनियादी ढांचे का हिस्सा है।