सऊदी अरब और पाकिस्तान के बीच रक्षा समझौता: भारत के लिए नई चुनौतियाँ
सऊदी अरब-पाकिस्तान रक्षा समझौता
यह समझौता एक महत्वपूर्ण चिंता का विषय है, क्योंकि यदि सऊदी अरब या पाकिस्तान पर हमला होता है, तो दूसरा देश इसे अपने खिलाफ हमला मान लेगा। इस समझौते के तहत दोनों देश एक-दूसरे के क्षेत्र में अपने हथियार तैनात कर सकेंगे।
भारत को सऊदी अरब और पाकिस्तान के बीच हुए ‘रणनीतिक पारस्परिक रक्षा समझौते’ पर ध्यान देना आवश्यक है। इस समझौते का एक प्रमुख पहलू यह है कि यदि किसी एक देश पर हमला होता है, तो दूसरा देश इसे अपने खिलाफ माना जाएगा। इस प्रावधान के तहत, दोनों देश एक-दूसरे के क्षेत्र में अपने हथियारों की तैनाती कर सकेंगे। यह समझौता कतर पर इजराइल के हमले के कुछ दिनों बाद हुआ है। दोनों देशों के संयुक्त बयान में कहा गया है कि इस करार का उद्देश्य रक्षा सहयोग को बढ़ावा देना और हमलों के खिलाफ ‘साझा रक्षा शक्ति’ को मजबूत करना है। स्पष्ट है कि इस नए करार के तहत पाकिस्तान अपनी मिसाइलें सऊदी अरब में तैनात कर सकेगा।
इसके साथ ही, सऊदी अरब को पाकिस्तान के परमाणु हथियारों की सुरक्षा भी प्राप्त होगी। हालांकि, सऊदी अरब की रक्षा शक्ति की कोई बड़ी पहचान नहीं है, लेकिन आर्थिक और कूटनीतिक क्षेत्रों में उसकी स्थिति मजबूत है। इसलिए, पाकिस्तान के साथ टकराव की स्थिति में भारत को युद्ध संबंधी नई चुनौतियों का सामना नहीं करना पड़ेगा, लेकिन ऐसे हालात में सऊदी अरब की आर्थिक और कूटनीतिक सहायता पाकिस्तान के लिए महत्वपूर्ण होगी। इसे हाल के ऑपरेशन सिंदूर के अनुभव के संदर्भ में देखना उचित होगा, जब भारत अंतरराष्ट्रीय स्तर पर अलग-थलग पड़ा था। यह समझौता तेजी से बदलती वैश्विक परिस्थितियों का एक उदाहरण है।
अब तक, सऊदी अरब और अन्य खाड़ी देश अमेरिकी सुरक्षा कवच के तहत सुरक्षित महसूस करते थे। लेकिन इजराइल के कतर पर हमले ने इस भ्रम को तोड़ दिया। इसके परिणामस्वरूप, सऊदी अरब ने नए सुरक्षा समीकरणों की ओर बढ़ने में समय नहीं गंवाया। इस समझौते के साथ, सऊदी अरब परोक्ष रूप से चीन के सुरक्षा ढांचे से जुड़ जाएगा, जिसमें पाकिस्तान भी शामिल है। पाकिस्तान की युद्ध प्रणालियाँ चीन से जुड़ी हुई हैं, जिसका ठोस उदाहरण ऑपरेशन सिंदूर के दौरान देखने को मिला था। सऊदी अरब के प्रभाव को देखते हुए, अब यह आशंका है कि अन्य खाड़ी देश भी पाकिस्तान के माध्यम से इस ढांचे से जुड़ सकते हैं।