गुरु हर किशन जी: एक छोटे गुरु की महानता
गुरु हर किशन जी की जीवनी: एक छोटे गुरु का बड़ा दिल
जब सिख इतिहास की चर्चा होती है, तो गुरु हर किशन जी का नन्हा चेहरा हमेशा याद आता है। सिखों के आठवें गुरु, जिन्हें 'बाला पीर' के नाम से जाना जाता है, ने केवल पांच साल की उम्र में गुरु गद्दी संभाली और अपने छोटे से जीवन में अद्वितीय करुणा और सेवा का परिचय दिया। दिल्ली की गलियों से लेकर गुरुद्वारा बंगला साहिब तक, उनकी प्रेरणादायक कहानी हर किसी को छू जाती है। इस गुरु पूर्णिमा 2025 पर, आइए जानते हैं कि कैसे इस छोटे गुरु ने अपने विशाल दिल से दुनिया को प्रभावित किया।
गुरु हर किशन जी का जन्म और प्रारंभिक जीवन
गुरु हर किशन जी का जन्म 7 जुलाई 1656 को पंजाब के कीरतपुर साहिब में हुआ। वे गुरु हर राय जी और माता कृष्ण कौर के छोटे बेटे थे। बचपन से ही उनकी आँखों में करुणा और मन में शांति थी। जाति और वर्ग के भेदभाव को भुलाकर, वे सभी को समान दृष्टि से देखते थे। उनके बड़े भाई राम राय ने सिख मर्यादा का उल्लंघन किया, जिसके कारण गुरु हर राय जी ने उन्हें गुरु गद्दी से हटा दिया। इसके बाद, केवल पांच साल की उम्र में, गुरु हर किशन को आठवां नानक बनाया गया। इतनी कम उम्र में गुरु बनना आसान नहीं था, लेकिन उनकी आध्यात्मिक शक्ति ने सभी को चकित कर दिया।
औरंगजेब का निमंत्रण
गुरु हर किशन जी की बढ़ती प्रसिद्धि से उनके भाई राम राय जल उठे और उन्होंने मुगल सम्राट औरंगजेब से शिकायत की। औरंगजेब, जो धर्म के नाम पर साजिशें करता था, इस छोटे गुरु की प्रसिद्धि से प्रभावित हुआ और उन्हें दिल्ली बुलाने का आदेश दिया। प्रारंभ में गुरु जी ने मना किया, लेकिन सिख अनुयायियों और राजा जय सिंह के आग्रह पर वे दिल्ली आए। राजा जय सिंह ने उन्हें अपने बंगले में ठहराया, जो आज गुरुद्वारा बंगला साहिब के नाम से जाना जाता है। उस समय दिल्ली में चेचक और हैजा जैसी बीमारियों का प्रकोप था।
बाला पीर की सेवा
दिल्ली पहुंचते ही गुरु हर किशन जी ने बीमारों की सेवा करना शुरू कर दिया। उन्होंने अपने नन्हे हाथों से पानी पिलाया, मरीजों की देखभाल की और हर दुखी व्यक्ति को गले लगाया। जाति और धर्म का भेद भुलाकर, उन्होंने सभी की मदद की। उनकी इस निःस्वार्थ सेवा को देखकर स्थानीय लोग उन्हें 'बाला पीर' कहने लगे। गुरुद्वारा बंगला साहिब का सरोवर आज भी उनकी सेवा की याद दिलाता है, जहां श्रद्धालु पवित्र जल लेने आते हैं। उनकी करुणा ने दिल्ली के हर दिल को जीत लिया, और उनकी कहानी आज भी प्रेरणा देती है।
अंतिम क्षण और विरासत
सेवा करते-करते गुरु हर किशन जी खुद चेचक की चपेट में आ गए। तेज बुखार में भी उनका मन शांत रहा। अंतिम समय में उन्होंने अपनी माता को बुलाया और कहा, 'मेरा समय पूरा हुआ, अगला गुरु बाबा बकाला में मिलेगा।' यह संकेत गुरु तेग बहादुर जी के लिए था। 3 अप्रैल 1664 को, केवल आठ साल की उम्र में, गुरु जी ने वाहेगुरु का नाम लेते हुए इस दुनिया को अलविदा कह दिया। उनका छोटा सा जीवन सिख धर्म की नींव को और मजबूत कर गया। आज गुरुद्वारा बंगला साहिब उनकी सेवा और करुणा का जीवंत प्रतीक है।
गुरु हर किशन जी की जीवनी का महत्व
गुरु हर किशन जी की जीवनी 2025 में सिख इतिहास का एक प्रेरक अध्याय है। सिखों के आठवें गुरु, जिन्हें 'बाला पीर' कहा गया, ने पांच साल की उम्र में गुरु गद्दी संभाली और दिल्ली में चेचक-हैजा पीड़ितों की निःस्वार्थ सेवा की। औरंगजेब के बुलावे पर वे दिल्ली आए और राजा जय सिंह के बंगले (आज का गुरुद्वारा बंगला साहिब) में ठहरे। चेचक से पीड़ित होने के बाद 1664 में मात्र आठ साल की उम्र में उनका निधन हुआ, लेकिन उनकी सेवा और करुणा की कहानी आज भी जीवित है।