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ब्यूरोक्रेट्स का बढ़ता प्रभाव: क्या जनप्रतिनिधियों की आवाज़ दबाई जा रही है?

हाल के वर्षों में ब्यूरोक्रेट्स का प्रभाव तेजी से बढ़ा है, जिससे जनप्रतिनिधियों में असंतोष बढ़ रहा है। क्या यह स्थिति सरकारों के लिए चुनौती बन रही है? जानें इस मुद्दे पर विस्तार से।
 

ब्यूरोक्रेट्स का बढ़ता वर्चस्व

लखनऊ। पिछले कुछ वर्षों में देश और प्रदेश में ब्यूरोक्रेट्स का प्रभाव तेजी से बढ़ा है। यह स्थिति भाजपा शासित राज्यों और केंद्र में भी स्पष्ट रूप से देखी जा सकती है। कुछ प्रमुख नेताओं को छोड़कर, ब्यूरोक्रेट्स अब सांसदों, विधायकों, मंत्रियों और संगठन के सदस्यों की बातों को सुनने में रुचि नहीं दिखा रहे हैं, जिससे जनप्रतिनिधियों में असंतोष बढ़ रहा है।

वास्तव में, मंत्री, सांसद, विधायक और संगठन के सदस्य जनता की समस्याओं के समाधान के लिए ब्यूरोक्रेट्स से संपर्क करते हैं, लेकिन उनकी सुनवाई नहीं होती। उत्तर प्रदेश में कई मंत्री और विधायक इस मुद्दे को लेकर प्रधानमंत्री और मुख्यमंत्री से भी शिकायत कर चुके हैं, लेकिन ब्यूरोक्रेट्स का रवैया नहीं बदला है। यह भी देखा गया है कि जो ब्यूरोक्रेट्स जनप्रतिनिधियों की बातों को नजरअंदाज करते हैं, उन्हें महत्वपूर्ण पदों पर नियुक्त किया जाता है।

उत्तर प्रदेश में ब्यूरोक्रेट्स का यह रवैया आमतौर पर देखने को मिलता है। वे अपने विभाग के मंत्री की भी नहीं सुनते, जिससे सवाल उठते रहते हैं। सांसद और विधायक जनता के कार्यों के लिए पत्र लिखते हैं, लेकिन उनके पत्रों को नजरअंदाज किया जाता है, जिससे जनप्रतिनिधि जनता के बीच जाने में संकोच करने लगे हैं। इस स्थिति में यह सवाल उठता है कि क्या जनप्रतिनिधियों की बातों को नजरअंदाज करके सरकारें आगे बढ़ती रहेंगी या इसमें कोई बदलाव आएगा?

इसके अलावा, यह भी कहा जाता है कि जिन सरकारों में ब्यूरोक्रेट्स का वर्चस्व होता है, उनके जाने के बाद कई बड़े घोटाले सामने आते हैं। बिहार में भी कुछ इसी तरह के आरोप-प्रत्यारोप का दौर शुरू हो गया है। जनसुराज पार्टी के प्रमुख प्रशांत किशोर ने हाल ही में कुछ सनसनीखेज आरोप लगाकर राजनीतिक हलचल बढ़ा दी है।

रिटायर ब्यूरोक्रेट्स को मिल रहा अधिक महत्व
यह ध्यान देने योग्य है कि अब जमीनी नेताओं की पार्टियों में कोई पूछ नहीं हो रही है। रिटायर होने वाले ब्यूरोक्रेट्स को पार्टियों द्वारा अधिक महत्व दिया जा रहा है। उन्हें तत्काल पार्टी टिकट दिए जा रहे हैं और मंत्री भी बनाया जा रहा है। पिछले कुछ वर्षों में यह प्रवृत्ति बढ़ी है, जबकि जमीनी नेताओं का प्रभाव कम होता जा रहा है।