शंभू महाराज: कला के सम्राट की यात्रा और विरासत
शंभू महाराज का कला सफर
नई दिल्ली: दिल्ली के प्रतिष्ठित भारतीय कला केंद्र में एक शांत और सौम्य कलाकार ने कदम रखा। यह कलाकार कोई और नहीं, बल्कि 16 नवंबर 1907 को लखनऊ में जन्मे कला के सम्राट शंभू महाराज थे।
उनकी कला को राष्ट्रीय स्तर पर पहचान मिली जब 1956 में भारत सरकार ने उन्हें पद्म श्री से सम्मानित किया। उनकी कला यात्रा यहीं समाप्त नहीं हुई; 1957 में उन्हें संगीत नाटक अकादमी पुरस्कार भी प्राप्त हुआ।
कला के प्रति उनके समर्पण और विरासत को देखते हुए, 1967 में उन्हें संगीत नाटक अकादमी फेलोशिप (अकादमी रत्न) से भी सम्मानित किया गया।
इन सभी सम्मान और पहचान के पीछे उनके बचपन की कठोर मेहनत और रियाज था। शंभू महाराज उस महान परंपरा के उत्तराधिकारी थे, जिसके संस्थापक उनके पिता कालका प्रसाद और चाचा बिंदादीन महाराज थे। उनके चाचा ने शंभू महाराज की कला को गहराई दी। बिंदादीन महाराज को 'भाव' के सागर के रूप में जाना जाता था।
शंभू महाराज नृत्य में भाव-प्रधानता के महत्व को मानते थे। उनका मानना था कि बिना भाव के लय-ताल प्रधान नृत्य केवल एक चमत्कारिक तमाशा हो सकता है, असली नृत्य नहीं।
नृत्य के साथ ठुमरी गाकर भावों को इस अद्भुत तरीके से प्रदर्शित करते थे कि दर्शक मंत्रमुग्ध हो जाते थे। गायन में ठुमरी के साथ दादरा, गजल और भजन भी बड़े उत्साह से गाते थे।
उनका शिक्षण तरीका भी अनूठा था। वह छात्रों को कहानी की गहराई समझाते थे और हर भाव के पीछे छिपी मानवीय भावना का अर्थ बताते थे। उनके शिष्यों में माया राव, भारती गुप्ता, उमा शर्मा और उनके भतीजे बिरजू महाराज जैसे नाम शामिल हैं।
बिरजू महाराज ने 2002 में बॉलीवुड के किंग शाहरुख खान की फिल्म 'देवदास' में 'काहे छेड़ मोहे' गाने को कोरियोग्राफ किया।
हालांकि, विडंबना यह थी कि कला के जिस पहलू ने उन्हें 'अभिनय चक्रवर्ती' बनाया, उसी के कारण उनकी मृत्यु हुई। गले की बीमारी (कैंसर) ने उनकी कला के केंद्र को प्रभावित किया और 4 नवंबर 1970 को उनका निधन हो गया।