×

उत्तराखंड में अनियंत्रित निर्माण से बढ़ता पर्यावरणीय संकट

उत्तराखंड में तेजी से हो रहे अनियंत्रित निर्माण ने पर्यावरण के लिए गंभीर खतरे का संकेत दिया है। विशेषज्ञों का कहना है कि यह गतिविधियाँ पहाड़ों में बादल फटने जैसी आपदाओं को बढ़ा सकती हैं। मिट्टी की जलधारण क्षमता में कमी और स्थानीय जलवायु तंत्र का असंतुलन इसके प्रमुख कारण हैं। यदि यह स्थिति नहीं बदली, तो आने वाले वर्षों में भूस्खलन और बादल फटने की घटनाएं कई गुना बढ़ सकती हैं। विकास और पर्यावरण के बीच संतुलन स्थापित करने की आवश्यकता है।
 

उत्तराखंड में निर्माण गतिविधियों का प्रभाव

नैनीताल - उत्तराखंड जैसे संवेदनशील पहाड़ी क्षेत्रों में तेजी से हो रहा अनियंत्रित निर्माण अब पर्यावरण के लिए गंभीर खतरा बनता जा रहा है। धराली का भयानक दृश्य अभी भी लोगों को डरा रहा है। इन पर्वतीय इलाकों में बेतरतीब इमारतों और सड़कों का निर्माण न केवल पर्यावरण संतुलन को बिगाड़ रहा है, बल्कि यह आपदाओं का भी बड़ा कारण बन रहा है। नैनीताल स्थित एरीज (एआरआईईएस) के विशेषज्ञों ने चेतावनी दी है कि इस प्रकार की गतिविधियां पहाड़ों में बादल फटने की घटनाओं को कई गुना बढ़ा सकती हैं।


विशेषज्ञों का कहना है कि पहाड़ों की मिट्टी पहले से ही कमजोर है। बड़े पैमाने पर पहाड़ों को काटकर निर्माण करने से मिट्टी की जलधारण क्षमता कम हो रही है और स्थानीय जलवायु तंत्र असंतुलित हो रहा है। इसका सीधा असर मौसम के पैटर्न पर पड़ रहा है। अब पर्वतीय क्षेत्रों में 'लोकल क्लाउड फॉर्मेशन' यानी स्थानीय स्तर पर असामान्य बादलों का जमाव बढ़ रहा है। ऐसे बादल अपेक्षाकृत कम ऊंचाई पर बनते हैं और अचानक भारी बारिश के साथ एक स्थान पर फट पड़ते हैं, जिससे विनाशकारी परिणाम होते हैं। एरीज के मौसम विज्ञानी नरेंद्र सिंह का कहना है कि निर्माण कार्य न केवल परोक्ष बल्कि अपरोक्ष रूप से भी प्रकृति को प्रभावित करते हैं। उन्होंने बताया कि हर निर्माण से निकलने वाला रेडिएशन वायुमंडल में जाकर तापमान बढ़ाता है। जिस क्षेत्र में अधिक निर्माण होता है, वहां का औसत तापमान आसपास के क्षेत्रों की तुलना में अधिक होता है। यह तापमान वृद्धि बादलों के बनने और बरसने के तरीके को भी प्रभावित करती है। ग्लोबल वार्मिंग, वनों की कटाई और अनियंत्रित निर्माण का संयुक्त प्रभाव अब पहाड़ों पर स्पष्ट रूप से दिखाई देने लगा है। पहले जहां बादल महीनों में बनकर हल्की बारिश देते थे, वहीं अब अचानक कुछ घंटों में भारी तबाही मचा रहे हैं।


विशेषज्ञों की चेतावनी है कि यदि यह रफ्तार नहीं थमी, तो आने वाले वर्षों में उत्तराखंड और अन्य हिमालयी राज्यों में बादल फटने और भूस्खलन की घटनाएं कई गुना बढ़ सकती हैं। स्थानीय पर्यावरणविद भी मानते हैं कि अब समय आ गया है कि विकास और पर्यावरण के बीच संतुलन स्थापित किया जाए। योजनाबद्ध और टिकाऊ निर्माण, वनों का संरक्षण और पहाड़ी क्षेत्रों में निर्माण पर सख्त नियंत्रण ही इस संकट से बचने का एकमात्र उपाय है। अन्यथा, न केवल पहाड़ों की सुंदरता, बल्कि वहां की जिंदगियां भी गंभीर खतरे में पड़ जाएंगी।